‘सपनों की होम डिलिवरी’ में स्त्री विमर्श / डॉ. निम्मी ए.ए.


नारी! तुम केवल श्रद्धा हो। विश्वास रत नग पग तल में,
पीयू स्रोत सी बहा करो। जीवन के सुंदर समतल में

      जयशंकर प्रसाद ने स्त्री को शक्ति, सौंदर्य, श्रद्धा और शांति का प्रतिरूप माना था।  किसी भी राष्ट्र की संस्कृति, सभ्यता और उन्नति का आकलन उस देश की महिलाओं से किया जाता है। स्त्री का मूल्यांकन इससे खूबसूरत शायद ही हो सकता है।
आज का उत्तर आधुनिक युग स्त्री विमर्श का है। फिलहाल समय में, समाज और साहित्य के ऐतिहासिक संदर्भों में भारतीय स्त्री की हालत के विश्लेषण की अहमियत ज़्यादातर बढ़ गयी है। स्त्री वादी आंदोलन विश्वस्तर पर चल रहे हैं, स्त्री अस्मिता और स्त्री अस्तित्व की पहचान केलिए स्त्री विमर्श चल रहे हैं जो कि गौरतलब है।
      विमर्श का अर्थ है जीवंत बहस। यानी कि किसी भी समस्या या स्थिति को एक कोण से न देखकर भिन्न मानसिकताओं, दृष्टियों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं का समाहार करते हुए उलट-पुलट कर देखना और उसे समग्रता में समझने की कोशिश करना। हिन्दी में विमर्श शब्द अँग्रेजी के डिस्कोर्स शब्द से आया, जिसका अर्थ है - वर्ण्य विषय पर सुदीर्घ एवं गंभीर चिंतन - मनन। अतः विमर्श साझा चूल्हा है और इनका लक्ष्य है संवाद। संवाद तब तक होते हैं जब तक परिवर्तन और परिष्कार की कोई उम्मीद हो। दरअसल स्त्री विमर्श पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंडों,  मूल्यों व अंतर्विरोधों को समझने व पहचाने की गहरी अंतर्दृष्टि है। इसे दूसरे विमर्शों से पृथक कर देखने की ज़रूरत नही। कम से कम स्त्री विमर्श पर अलगाववाद का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता। स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पर जाता है जहां कहीं दमन है - चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल, जिस आयु, जिस जाति की स्त्री त्रस्त है - उसको अँकवार लेता हैं
      समकालीन स्त्री चिंतन जिसे स्त्री विमर्श भी कहा जाता है, स्त्री,  उसका जीवन और उस जीवन की समस्याओं को केन्द्रीय विषय बनाता है। यही नही स्त्री को मनुष्य के रूप में स्वीकारने की मांग करता है, पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था को चुनौती देता है और इस व्यवस्था के विरुद्ध संवाद करते हुए उन मूल्यों का खंडन करता है, जो स्त्री के शोषण का कारण बनते है। इस दौर की महिला कथाकारों ने परिवर्तित परिवेश में पति – पत्नी के बीच सम्बन्धों में टूटन और अलगाव, प्रेम और सेक्स का नवीन भाव – बोध, विवाहेतर संबंध, अहम के टकराव, पराश्रयता से मुक्ति, स्वावलंबन व उपभोक्तावादी संस्कृति के जीवन में प्रवेश में आये बदलावों का सामाजिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक पक्ष की कसौटी पर तटस्थ होकर उपन्यासों में रेखांकित किया है।        
      हिन्दी उपन्यास के परिदृश्य पर वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया की उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। स्वातंत्र्योत्तर भारत के शिक्षित, संघर्षरत और परिवर्तनशील समाज का सजीव चित्र आपके उपन्यासों में अपने बहुरंगी आयामों में दिखाई देता है। हिन्दी कथा - जगत में आपकी तरह लिखने वाले रचनाकार विरल हैं जो गहरी आत्मीयता,  आवेग और उन्मेष के साथ जीवन के धड़कते क्षण पाठक तक पहुँचा सकें।  इस रचनाकार ने अपने समय और समाज को पुनर्परिभाषित करने का सृजनात्मक जोखिम लगभग हर रचना में उठाया है।  
      पारिवारिक जीवन एक साहचर्य, तालमेल और सामंजस्य की मांग करता है, जिसमें पति और पत्नी दोनों की बराबर की हिस्सेदारी एक अनिवार्यता है। अगर यह स्थिति नहीं है तो इसे बातचीत द्वारा या खुलकर इस समस्या के हर कोनों पर समय रहते चर्चा की जानी चाहिए, वरना जिन बच्चों का भविष्य संवारने केलिए एक औरत अपनी पूरी ज़िंदगी होम कर देती है, उसका सबसे बड़ा खामियाजा अंततः बच्चे ही भुगतते दिखाई देते हैं। वे डिप्रेशन से लेकर अत्महंता मनःस्थिति और ड्रग एडिक्शन तक के शिकार हो जाते हैं। ममता कालिया का नवीनतम उपन्यास सपनों की होम डिलीवरी इसी तथ्य को सामने लाता है। स्वयं लेखिका के लफ़्ज़ों में महिलाओं के साथ दिन भर में जाने कितनी ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं जिन पर, यदि वे गंभीरता से सोचें तो भारतीय परिवारों की चिन्दियाँ उड़ जाएँ। यह कहना की स्त्री स्वभाव से सहनशील होती है, सहनशीलता का उपहास उड़ाना है क्योंकि दिन पर दिन इसका घेरा चुनौतीपरक होता जा रहा है 
      ममता कालिया का सपनों की होम डिलीवरी  नए जमाने के करवट बदलते रिश्तों को केंद्र में रखकर  लिखा गया है। रिश्ता चाहे पति – पत्नी का हो, माता – पिता और संतान का हो या प्रेमी – प्रमिका का, ईमानदारी से देखें तो हर रिश्ता नए वक्त के साथ ताल बिठाने की कोशिश कर रहा है। दोष किसी का नहीं है,  शायद हर युग अपने  सामाजिक संजाल को ऐसे ही बदलता होगा।  ममता कालिया इस उपन्यास में दोषी किसी को नहीं ठहरातीं, न किसी पात्र का पक्ष लेती हैं, न किसी को आरोपों के कठघरे में खड़ा करती हैं। इसमें पात्र अपना विकास अपने आप कर लेते हैं, ट्रैफ़िक की तरह उनका रास्ता बार-बार मोड़ा नहीं जा सकता। बल्कि सिर्फ उनकी कहानी बयान करती हैं जो एक तरफ अपनी निजी शिनाख़्त को तो दूसरी तरफ़ रिश्तों की ऊष्मा को बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। शायद यही वह मूल्य संघर्ष है जिसमें से आज हम सबको गुज़रना पड़ रहा है। उपन्यास में एक तरफा व्यस्क होती वैयक्तिकता का चित्रण है जिसे अपना निजी स्पेस चाहिए तो दूसरी तरफ़  समाज के पुराने साँचे हैं जिनमें यह चीज़ अंट नहीं पाती। ऐसे में भीतर — बाहर की टूट – फूट और यंत्रणा ही इसका नतीजा होता है।
      प्रस्तुत उपन्यास में बनते – बिगड़ते, बिखरते – सिमटते, दाम्पत्य सम्बन्धों का आधुनिक संदर्भ में एक तटस्थ आकलन किया गया है।  उपन्यास की नायिका रुचि एक असफल विवाह से निकलकर अपनी खुद की पहचान अर्जित  करती है।  दूसरी तरफ़ सर्वेश है, जोकि अपने पहले विवाह से समझौता न कर पाने के कारण तलाकशुदा है। दोनों का अपना एक – एक बच्चा भी है – गगन और अंश। रुचि का बेटा गगन पारिवारिक टूटन की वजह से नशे की चपेट में फँस जाता है। उसी रास्ते पर चलता हुआ सर्वेश अपना बेटा खो बैठता है। संयोगवश सर्वेश गगन को चरस के अड्डे से उठा लाता और उसे जीवनदान करता है। उसे गगन में अंश दिखाई देता है। यही बिन्दु रुचि और सर्वेश के निजी स्पेस को स्थायी रूप से जोड़कर एक नया, बड़ा स्पेस बनाता है।
                आज विश्व में स्त्री मुक्ति आन्दोलन का प्रभाव क्षेत्र व्यापक हो गया है।  आर्थिक दृष्टि से भी आज महिलाओं में आत्मनिर्भरता की भावना का संचार हो गया है। यद्यपि स्वतन्त्रता के नाम पर नारी शिक्षित हुई है, आर्थिक क्षेत्र में स्वावलंबी हुई है। दोनों ही प्राप्ति से उसने पुरुष को व विशेष रूप से सम्पूर्ण समाज को लाभान्वित किया है। नारी घर की सीमा के बंधन से बाहर निकली है, लेकिन उसका हेतु घर और परिवार ही है। वह घर का स्वामिनी है लेकिन तर्कपूर्ण बात यह है कि घर परिवार सबकी ज़िम्मेदारी प्रमुख रूप से उस पर है। वह पति की सहयोगिनी है, सहगामिनी है। सदियों की विचारधारा है कि पति-पत्नी मिलकर ही गृहस्थी की गाड़ी खींचते हैं या गृहस्थी का बोझ उठाते हैं – इस बात को वह समझती है, साथ ही अपनी ज़िम्मेदारी निभाती हैलेकिन भारत में स्त्रियों के भाग्य का निर्णय अ भी उनके पति  या परिवार के हाथों में होता है। वह अपने विवाह, परिवार,  यौनसंबंध तथा अन्य बातों के संबंध में मुक्त नहीं है। यदि वह मुक्त होने की कोशिश भी  करती है, तो उसे समाज बदचलन या वेश्या का नाम देता है। भारतीय स्त्री की यही मजबूरी है कि उसे अकर्मण्य पति के दबाव में ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ती हैं। उपन्यास की नायिका रुचि शर्मा का पहला  विवाह बिना उसकी सहमति के उसके दादा-दादी ने पुण्य कमाने की हसरत और जल्दी में तय कर दिया था, जब वह एम. ए कर रही थी। उसका पति क्रूर और दुराचारी था। यही नहीं प्रभाकर केलिए शादी का मतलब शरीर था जो वह कहीं भी जाकर प्राप्त कर लेता। ऐसे में वह पति का घर छोड़ देती है। फिर बड़ी बाधाओं में अपनी शिक्षा पूरी करती है। कोई अच्छी नौकरी न मिलने पर, कई साल भटकने के बाद उसे टी.वी चैनल पर पहला शो करने का प्रस्ताव मिला कि उसके पास गृहविज्ञान या आतिथ्य कला की कोई उपाधि नहीं थी। माता – पिता के घर में खाना बनाते खिलाते उसे इतनी रसोई कला आ गई थी। प्रस्तुतीकरण का कौशल उसने विदेशी चैनलों पर कुकरी – शो देख कर सीखा था। पत्र-पत्रिकाओं में तत्संबंधी उसके लेख नियमित रूप से छपते थे। इसप्रकार उसे नाम और प्रतिष्ठा दोनों प्राप्त था।
      प्रस्तुत उपन्यास में पुरुष और स्त्री के समादृद समंजन पर ज़्यादातर बल दिया गया है। जिस दिन औरत यह समझ लेगी कि उसको अपनी ज़िंदगी और उसके अपने मूड का भी एक मूल्य है और इससे खेलने का अधिकार उस व्यक्ति को तो बिल्कुल नहीं है, जो उससे प्रेम नहीं करता, उस पर शासन और नियंत्रण करना चाहता है। इस समझ ने ही रुचि को अपनी पहली यंत्रणापूर्ण  ज़िंदगी से ऊपर उठाया। उसका उदाहरण तो और भी विचित्र था क्योंकि पति ने उसे नहीं छोड़ा था, वही पति को छोड़ आयी थी। तलाक की तकलीफ़देह प्रक्रिया में पाँच साल गुज़र गए। जब समस्त बंधनों से आज़ाद हुई तो उसके माता - पिता एक के पीछे एक चटपट गुज़र गए। पहली बार जीवन में तब उसे एकाकीपन का मर्म समझ आया। बहरहाल उसने तनहाई से बाहर निकलने की बेहद कोशिश की। वह विक्टोरिया चेम्बेर्स में ओशविरा वाला फ्लैट में रहने लगी। आज रुचि ने भी मन बना लिया। बहुत झेल लिया अकेलापन। नया साथी चुनने में कोई वैधानिक बाधा तो है नहीं, बस अपने मन और मस्तिष्क को समझना है 
      सर्वेश नारंग खोजी पत्रकार था। तीन साल पहले वह अपनी पहली पत्नी से मुक्त हो चुका था। उसका भी अपने क्षेत्र में नाम था। दोनों एक दूसरे के समीप आते है। लेकिन रुचि ने यह नहीं बताया था  कि पहली शादी में उसका एक बेटा भी है जो उसके जी का जंजाल बना हुआ है। सर्वेश रुचि से साथ रहने का प्रस्ताव रखता है। लेकिन वह उसका तिरस्कार करती है – मेरा कमरा हर किसी का प्रवेश बर्दाश्त नहीं करता। वह सहजीवन को गलत रिवाज़ मानती थी। पहली शादी की लाख कड़वाहट रही हो रुचि के जीवन में, वह फिर भी बिना शादी के सर्वेश के साथ सहजीवन केलिए तैयार नहीं थी। उसे लगता सहजीवन एक नितांत अस्थायी, अस्थिर और असंगत अनुबंध हैं जिसमें पुरुष से ज़्यादा स्त्री का नुकसान हैं। हम जितना भी अपने आपको आधुनिक कहें सहजीवन को सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिला हैं। रुचि कभी भी सर्वेश की बड़काव में आकार अपनी ज़िंदगी को खत्म करना नहीं चाहती थी। एक बार दलदल में फँसकर बड़ी मुश्किल से वह बाहर आयी थी। इसलिए वह सर्वेश से कहती है – मैं सहजीवन को गलत रिवाज़ मानती हूं। हमारे ऊपर समाज की ज़िम्मेदारी है। बाद में दोनों औपचारिक विवाह संबंध में बंध जाते है - एक दूसरे के पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी बनकर बंधे भी और मुक्त भी।  
      समाज में नारी की निरीह स्थिति में बदलाव आया है  और वह अबला से सबला बनने की तरफ़ अग्रसर हुई है,  वह अपने  अधिकारों के प्रति सजग और सचेत हुई है। पुरुष तंत्रात्मक समाज के बंधनों के ख़िलाफ़ उसने विद्रोह किया है। स्त्री के  क्रांतिवीर तेवर से परिवार की बुनियाद हिल गयी है और पारिवारिक विघटन भिन्न-भिन्न रूपों में समाज में पसरता जा रहा है। पुरुष का परम्परागत मानस स्त्री के मौलिक अधिकारों को स्वीकार नहीं कर पाता। वह दबाना चाहता है और स्त्री अपनी गुलाम मानसिकता वाली छवि सती-साध्वी या पति-परमेश्वरी को तोड़कर अपना स्वतंत्र वजूद बनाना चाहती हैं। सामंती समाज में स्त्री माँ,  बहन,  पत्नी,  प्रेमिका,  दासी आदि के रूप में थी उसका अपना अलग वजूद नहीं था। आधुनिकता और बौद्धिकता  की वजह से  वह अपने निज स्वरूप और अपनी भावनाओं एवं इच्छाओं  के प्रति सचेत हुई हैं। इस सजगता से टकराहट होती है और यहीं से सम्बन्धों में दरार पड़नी शुरू हो जाती है। फिलहाल  पुरुष स्त्री में परम्परागत कुल लक्ष्मी या कुल वधू वाले  स्वरूप को ही ढूँढता है,  वह उसी का आकांक्षी है। स्त्री का  आधुनिक होना उसे बर्दाश्त नहीं है। उसे वह कुलटा और परिवार तोड़ने वाली आदि विशेषणों से नवाने लगता है। उस पर चरित्र हीनता और स्वैराचार का आरोप लगाता है। उपन्यास में रुचि के पूर्व पति प्रभाकर की पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता मिखरित हुई है - प्रभाकर के ज़ेहन में स्त्री की छवि एक समर्पित, सहनशील अनुगामिनी की थी। अपनी ज़्यादतियों के बारे में उसका दृष्टिकोण बड़ा उदार था। वह मानता कि अगर पुरुष के पास अतिरिक्त पौरुष है तो वह पत्नी से इतर रिश्ते बनाएगा ही। वह अक्सर दोस्तों के बीच शेख़ी बघारता, आय एम सरप्लस फॉर माय वाइफ 
      परंतु सच्चाई यह थी कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक अपने मुल्क में शिक्षा और रोज़गार ने लड़के – लड़कियों के सामने उम्मीदों का संसार खोल दिया था। हुजूम की हुजूम लड़कियाँ पढ़ – लिखकर काम पर जाने लगीं। माता – पिता के दबाव में उन्हें शादी के फ्रेम में बंधना पड़ता पर दिन पर दिन यह फ्रेम उन्हें दमघोंटू महसूस होता। पारस्परिक विवाह में लोकतन्त्र की संभावना कठिन थी। हर जीवन साथी की इच्छा रहती कि वह पत्नी के जीवन को संचालित करे। सुबह उसके जागने से लेकर रात उसके सोने तक वह उसका नक्शा तैयार रखता कि पत्नी को क्या करना है। कुछ जीवनसाथी तो ऐसे थे कि बाथरूम या टॉयलेट में भी अगर देर लगती तो नर्वेस हो जाते। पत्नी के बाहर आते ही पूछते, अंदर बैठी क्या कर रही थी?’ बहरहाल बड़ी उम्र के इस समझदार संबंध में रुचि और सर्वेश ने एक नूतन प्रणाली का प्रणय निर्मित किया था। अपनी कार्य जगत की व्यस्तताओं का दोनों खयाल रखते। दोनों अपनी – अपनी आज़ादी परस्पर बंध होकर आज़मा रहे थे। रुचि कहती, इसलिए तो मैं उससे कहती हूँ तुम तो मेरे पंद्रह अगस्त हो। और वह क्या कहता। वह मुझे अपनी छब्बीस जनवरी कहता है
      फ़िलहाल प्रायः सभी उत्तर दायित्वहीन अधिकारों व वैयक्तिक आज़ादी की बात करते हैं। लेकिन उनसे जुड़े फर्ज़ के प्रति उदासीन दिखाई  पड़ते हैं। लिहाज़ा तमाम रिश्ते दरक रहे हैं। जीवन में एक खालीपन और उकताहट घेर लेते हैं।  इनसे बचने हेतु मानव नये रिश्तों की खोज करते हैं 'सपनों की होम डिलिवरी'  ऐसे ही स्त्री कथा का बयान करता है जो प्रभाकर शर्मा नामक बददिमाग, बदचलन और लंपट पति से असफल वैवाहिक जीवन का दंश झेलने के पश्चात जीने की नई राह पर कदम बढ़ाती हैं। सर्वेश से मिलने के पश्चात रुचि को मनोवैज्ञानिक उलझन होती है। वह बड़ी शिद्दत से माँ के रूप में अपनी नाकामयाबी महसूस करती है। चूंकि जिन परिस्थितियों में आकार सर्वेश,  अपने बेटे  अंश को खो बैठता है,  उसका बेटा गगन भी इन्हीं परिस्थितियों का शिकार था और कभी भी गड्ढे में गिर सकता था। वह पति का गुस्सा, पुत्र पर निकाल कर सोचती, मैंने बदला ले लिया। एक बार गगन धूप में बाहर जाने की ज़िद कर रहा था, रुचि ने खीझ कर उस पर स्टील का ग्लास दे फेंका था। गगन के माथे पर चोट लगी जिसका निशान बड़े होने पर भी बना रहा। प्रभाकर की हरकतों के विरुद्ध रुचि में आक्रोश इकट्ठा हो कर गगन के प्रति हिंसा में आकार लेता। उसके मन में गाँठ बनती गई कि गंदे इंसान का बच्चा भी गंदा निकलेगा    
      उपन्यास में पति – पत्नी संबंध या पारिवारिक विघटन को मीडिया किस प्रकार विज्ञापन का नया साम्राज्य बना देता है, इस पर भी विचार किया गया है। सर्वेश और रुचि दोनों के जीवन में गगन की मौजूदगी पहले - पहल सर्वेश को नाराज़गी में डालता है कि विवाह से पहले गगन के बारे में रुचि ने कोई सूचना नहीं दी थी। जब सर्वेश को पता चलता है तो वह रुचि से झगड़ता भी है। इसे अखबार और मीडिया पर खूब मनाया जाता है, जैसे सितारों का करते है। दृश्य मीडिया पर सी.सी.डी. में खींची गई तस्वीर कोण बदल - बदल कर दी जाने लगी। इस पर विस्तृत बहस छिड़ गई कि रुचि के चेहरे का भाव क्या है, क्रोध अथवा हर्ष, विषाद अथवा सुख का। प्रेम विवाह की सफलता और विफलता पर विचार – विमर्श  आयोजित हुआ। नारीवादियों ने इस मुद्दे पर रुचि शर्मा को लानतें दीं कि वह अपने साथ हुई क्रूरता का प्रतिकार प्रचंड शब्दों में क्यों नहीं करती। सभी चैनलों ने रुचि के पाककला कार्यक्रम दिखाने बंद कर दिये। इतना विवादग्रस्त चेहरा दिखाना उन्हें उचित नहीं लगा। केवल कुछ पत्रिकाओं में उसके कुकरी कॉलम बचे रहे। दरअसल यह उपन्यास लिखने के पीछे  विदेश की एक लोकप्रिय पाककला विशेषज्ञ चपल, चंचल और  वाकचतुर महिला नाइजैला लोरंस और उसके पति साची के झगड़े की खबर है। झगड़े के दृश्य मीडिया ने कैमरे में कैद कर लिया और खबरों में खुलासा किया था। लेखिका ममता कालिया के मन - मस्तिष्क पर इस ख़बर का चकरघिन्नी असर हुआ और इस उपन्यास में परिणत हुआ।
      उपन्यास में स्त्री चिन्तन व सोच को पर्याप्त जगह प्राप्त हुआ है। रुचि की तमाम मानसिकताओं को बेहद स्वाभाविकता के साथ उभारा गया है। अकेली रहनेवाली स्त्रियाँ भयंकर असुरक्षा - बोध से घिरी रहती हैं। सवाल यह था कि शहर में अकेली जीनेवाली लड़कियां आखिर क्या करें। वे कहाँ, किससे, किस हद तक सामाजिक संपर्क बनाएँ। सर्वेश और रुचि की ज़िंदगी में गगन का आना दरारें ज़रूर उत्पन्न करता है, मगर सर्वेश का सही निर्णय उपन्यास को नया मोड देता है। सर्वेश जैसे आदर्श पात्र की भूमिका मर्दवादी चिन्तन केलिए जवाबदेह है।      
     
निष्कर्षतः उपन्यास में पुरुष और स्त्री के परस्पर संबंध को नए सिरे से देखने और परखने की सराहनीय कोशिश मिलती है। आज के इस पारिवारिक टूटन के दौर में अमुक उपन्यास बेशक खुशियों की होम डिलिवरी केलिए बेमिसाल है।  
    

टिप्पणियाँ

  1. निम्मी ने बड़े खुले दिमाग से मेरे लघु उपन्यास,सपनों की होम डिलीवरी ,का अध्ययन और विश्लेषण किया है।मुझे अच्छा। लगा कि रचना को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ा गया

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