`गोडसे @ गांधी.कॉम’ में गाँधी चिंतन की पड़ताल एवं संभावनाएँ / डॉ. निम्मी ए.ए.
`गोडसे @ गांधी.कॉम’ में गाँधी चिंतन की पड़ताल एवं संभावनाएँ / डॉ. निम्मी ए.ए.
गांधीवाद महात्मा गांधीजी की विचार धारा पर अधिष्ठित है। जिसके मूल में तमाम जनता की भलाई है। रामनाथ सुमन की राय में ‘गांधीविचार का साधारण अर्थ व्यक्ति तथा समाज के हित का वह दर्शन एवं विज्ञान है, जिसके प्रधान पुरस्कर्ता और प्रयोगकर्ता गांधीजी है'[1]। प्रसिद्ध कथाकार यशपाल के लफ़्ज़ों में ‘गांधीजी ने देश की राजनैतिक मुक्ति केलिए जनता के सामने जो राजनैतिक कार्यक्रम रखा था, उसे गांधीदर्शन और गाँधीवाद का नाम दिया गया था’[2]।
दरअसल गांधी का कोई भी रास्ता या तरीका ऐसा नहीं है, जिस पर प्रश्न चिन्ह लगा सके। यही वजह है कि उनकी १५० वां जन्म शताब्दि में भी एक राजनेता तथा समाज सेवी की लिहाज़ से उनकी वैश्विक साख अद्वितीय है। बहरहाल ‘गांधी मर सकता है, पर गांधीवाद जीवित रहेगा’[3]। दरअसल गांधी एक शाश्वत विचार पद्धति है, दर्शन है, आईना है जिसकी मृत्यु नामुमकिन है।
मौजूदा राजनीतिक हालातों से यह बात ज़ाहिर होती है कि आज़ादी के इकहत्तर साल के भावजूद हम जिस भ्रष्ट तंत्र में जीने को मजबूर हैं, उसकी जड़ों को हमारे राजनेताओं ने भरपूर सींचा है। परंतु ‘गाँधीवादी नीति पर चलने का दावा करनेवाली शासन व्यवस्था देश के सर्व-साधारण के जीवन से कठिनाई को दूर करने के लिए क्या कर सकी है, यह देश की जनता अपने अनुभव से जानती है’[4]। नैतिकता की राजनीति तो अब जैसे दूर की कौड़ी हो गई है। फिलहाल मुद्दों के बजाय विरोध की राजनीति बनी है।
सत्ता के लिए अपराध और अनैतिकता से बढ़कर अन्य कोई बढिय़ा जुगाड़ नहीं है। आखिरकार धन के साथ-साथ सत्ता की कुर्सी ऐसी मोहिनी-कामिनी रखैल सी है जिसे हर कीमत पर जीता और भोगा जाना चाहिए। इससे भी शर्मनाक यह है कि फिलहाल मान-मर्यादा और गरिमा की लेशमात्र संभावना तक को ताक पर रख दिया गया है। महात्मा गांधी की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि उन्होंने कठिन धार्मिक नियमों का पालन करते हुए राजनीतिक जीवन को एक नई दिशा दी। राजनीति में रहकर भी उन्होंने अपना संतत्व कभी नहीं छोड़ा, जबकि आजकल के संत धार्मिक मठों में रहकर भी राजनीति करने लगे हैं।
गाँधी का धर्म बांटने के बदले बांधने का संदेश देते है। उनके धर्म का अर्थ है - ईश्वरमय जीवन जीना। ईश्वर का मतलब किसी रूप साँचे में ढला देवता नहीं है। ईश्वर का अर्थ है - सत्य या सत्याचरण। गाँधीजी ने बार-बार कहा था कि सत्य के सिवाय अन्य कोई ईश्वर नहीं है। इस ईश्वर की या इस सत्य की प्राप्ति तथा अनुभव का आधार उन्होंने प्रेम तथा अहिंसा को माना। महात्मा गांधी अहिंसावादी थे और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते थे। गांधीवाद अहिंसा और सत्याग्रह पर टिका है जो चार उपसिद्धांतों सत्य, प्रेम, अनुशासन एवं न्याय पर अधिष्ठित है, जिनकी उपादेयता वैश्वीकरण के वर्तमान हिंसक दौर में और बढ़ जाती है। गांधी ने साम्राज्यवाद की गोलियों को निरुपाय किया था। हिंसा के ज़रिए आज़ादी हासिल करने वालों की गोलियों को फिजूल साबित किया तथा सांप्रदायिकता की गोली को सीने पर झेलकर कुर्बानी दी थी। भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों के विचारों में बापू यानी महात्मा गांधी का संदेश गूंज रहा है। गांधी के सुगंधित एहसासों से दुनिया महक उठती है। लिहाज़ा उन एहसासों को जीवित रखना हमारी ज़िम्मेदारी है। बस, ज़रूरत सिर्फ इस बात की है कि हम यह प्रयत्न करते रहें कि गांधीवाद जन-जन के अंतकरण में मौजूद रहें। काका साहेब कालेलकर ने कभी कहा था कि संसार की ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान गांधी के पास न हो, कोई ऐसा संकट नहीं जिसका हल उनके विचारों से निकाला न जा सके। ध्वंस के कगार पर बैठे विश्व और आपाधापी भरे सामाजिक जीवन केलिए उनके द्वारा प्रयुक्त सत्य और अहिंसा के सिद्धांत संजीवनी हैं। ‘गांधी अक्सर कहा करते थे कि लोग अपने अंदर झांकें और स्वयं को सुधार लें तो समाज, देश और विश्व अपने आप सुधर जाएगा’[5]।
फिलहाल राजनीति समाज सेवा का साधन नहीं बल्कि आत्मसेवा का व्यवसाय मात्र बन गया है । राजनीति में तो विकार आने की गुंजाइश भी रहती है, क्योंकि वह सत्ता का खेल है, परंतु अब तो जीवन के हर क्षेत्र में ईमानदारी एवं सत्यता का लोप हो रहा है और भ्रष्टाचार की जड़े गहरी होती जा रही हैं । जो नैतिकता गांधीजी केलिए आचरण का गुण थी, वह फिलहाल दिखावे की वस्तु और मुखौटा मात्र बन चुकी है। ‘यदि वह समाज केलिए किसी प्रयोग का प्रस्ताव करते है, तो पहले वह स्वयं इसकी अग्निपरीक्षा में से गुजरेंगे, उसका मूल्य पहले वह स्वयं चकायेंगे। जबकि बहुत से समाजवादी अपने विशेषाधिकारों का परित्याग करने केलिए उस दिन की प्रतीक्षा करते हैं जबकि सब लोगों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा। गांधीजी दूसरों से त्याग की माँग करने से पूर्व अपना सर्वस्व त्याग देते है’[6]।
वरिष्ठ कथाकार एवं नाटककार असगर वजाहत का फंतासी शैली में रचा गया बहुचर्चित नाटक है ‘गोडसे @ गांधी.कॉम (२०१२)। इसमें तत्कालीन सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों के खिलाफ गांधी कई प्रश्न उठाते हुए दिखते हैं। नाटक में व्यंग का बेहद सहारा लेकर वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था में व्याप्त खोखलेपन का पर्दाफाश किया गया है। ‘अगर आज गांधी जिंदा होते तो क्या करते’ का जवाब खोजने की पहल में नाटककार ने इसमें आज के समय के हिसाब से गांधीवादी रास्तों और मूल्यों की संभावनाओं और सीमाओं की पड़ताल की हैं।
नाटक की शुरुआत रेडियो की एक उद्घोषणा से होती है -‘समाचार मिला है कि ऑपरेशन के बाद महात्मा गांधी की हालत में तेजी से सुधार हो रहा है। उन पर गोली चलाने वाले नाथूराम गोडसे को अदालत ने 15 दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया है..’।[7] गांधी मौलाना, नेहरू, पटेल और प्यारेलल के समक्ष जब गोडसे से मिलने की ख़्वाहिश प्रकट करते है तब सब लोग आवक रह जाते है। वे उनसे कहते हैं गोडसे ‘पूना का है.. वहाँ से एक मराठी अखबार निकालता था...सावरकर उसके गुरू हैं हिंदू महासभा से भी उसका संबंध है...ये वही हैं जिन्होंने प्रार्थना सभा में बम विस्फोट किया था...बहुत खतरनाक लोग हैं...’[8]। लेकिन गांधी पर इनका कोई असर नहीं पड़ा। ‘गांधीजी अपनी ज़िद पर डटे रहे कि बड़े-बड़े नेताओं के अपील करने, अखबारों के एडीटरों की राय और जनता के निवेदन के बावजूद वे नाथूराम गोडसे से मिलने गए। राज हठ और बाल हठ के साथ लोगों ने गांधी हठ को भी जोड़ दिया। गांधी अपने प्रोग्राम के मुताबिक ठीक आठ बजे तिहाड़ जेल के गेट पर पहुँच गए'[9]।
सत्याग्रह के बलबूते पर संवाद को सबसे बड़ी ताकत मानने वाले गांधी और गोडसे का संवाद इतिहास में भले ही नामुमकिन हो गया हो, परंतु इस नाटक के ज़रिए साझा हो गया। यहाँ पर असगरजी ने गांधी-गोडसे संवाद के तहत दो विरुद्ध विचारधाराओं के बीच की टकराहट को बौद्धिक स्तर पर समझने की पहल की गई है। गांधी गोडसे से कहते है कि वे विचारों को गोली से नहीं, विचारों से समाप्त करने पर विश्वास करते हैं - ‘मैं घृणा और प्रेम के बीच से नया रास्ता, संवाद का रास्ता ‘डॉयलॉग का रास्ता निकालना चाहता हूं’[10]। आगे गांधी हिंदुस्तान की खासियत को समझाता भी है। यानी उस देश को जो सिंधु से लेकर असम तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फ़ैला हुआ है। इस देश में रहने वाले उन तमाम लोगों को उनके जीवन को, उनके काम को, जिनसे यह देश बना है। इसे सिर्फ़ हिंदुओं का देश मानना इसके बहुरंगी जीवन को, इसके अभूतपूर्व सांस्कृतिक इतिहास को न्यून करना है। तथा उसकी आत्मा में समाहित समन्वय की अदम्य चेतना को नकारना है – ‘गोडसे... तुम्हारा अखंड भारत तो सम्राट अशोक के साम्राज्य के बराबर भी नहीं है... तुमने अफगानिस्तान को छोड़ दिया है... वे क्षेत्र छोड़ दिए हैं जो आर्यो के मूल स्थान थे... तुमने तो ब्रिटिश इंडिया का नक्शा टाँग रखा है... इसमें न तो कैलाश पर्वत है और न मान सरोवर है... गोडसे... तुमसे बहुत पहले हमारे पूर्वजों ने कहा था, वसुधैव कुटुंबकम... मतलब सारा संसार एक परिवार है... परिवार... परिवार की मर्यादाओं का ध्यान रखना पड़ता है’। गौरतलब है यह बात तब न गोडसे ने समझी थी और न आज के वे असामाजिक तत्व ने। बहरहाल सत्याग्रह के बलबूते पर संवाद को सबसे बड़ी ताकत मानने वाले गांधी और गोडसे का संवाद इतिहास में भले ही नामुमकिन हो गया हो, परंतु इस नाटक के ज़रिए साझा हो गया। यहाँ पर असगरजी ने गांधी-गोडसे संवाद के तहत दो विरुद्ध विचारधाराओं के बीच की टकराहट को बौद्धिक स्तर पर समझने की पहल की गई है।
आत्मनिर्भर गांव गांधी का ख़्वाब थे। इस नाटक में गांधी के इस सपने की संभावना पर जिक्र किया गया है। फिलहाल जल, जंगल और ज़मीन को सुरक्षित रखने वाले आदिवासियों को आज की सरकार विद्रोही ही मानती है और उनकी बेदखल करती है। इसके बरक्स नाटक में गांधी बिहार (झारखंड) के एक आदिवासी गांव में बावनदास (फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास 'मैला आँचल' का पात्र) की सहायता से अपना प्रयोग आश्रम संवारने की कोशिश करते हैं। और वहां ग्राम स्वराज के सपने को साकार करते हैं। 'प्रयोग आश्रम में सुलगाई गई चिंगारी ने आसपास के 25 गाँवों को अपनी आग में समेट लिया। पहली बार लोगों ने अपने को पहचाना... पहली बार अपनी ताकत पर विश्वास किया... पहली बार अपने लिए लक्ष्य बनाए और उन्हें पूरा किया... पहली बार किसी दूसरी व्यवस्था से सुरक्षा, न्याय और सहायता की माँग नहीं की... ये कोई छोटी बात नहीं थी... गाँवों के पटवारियों, चौकीदारों से होती-हवाती यह बात जिले और कमिश्नरी और राज्य सरकार से होती सीधे दिल्ली पहुँची और स्वतंत्र भारत की राजधानी में इस पर विचार हुआ कि देश में एक ऐसा हिस्सा है जो सरकार से कुछ नहीं माँगता। और यह बहुत ही खतरनाक माना गया। संविधान का हवाला देते हुए दिल्ली से जो चिट्ठियाँ गांधी के पास पहुँची उसके जवाब में गांधी ने लिखा कि यहाँ स्वराज है... जो यहाँ के लोगों ने खुद बनाया है’[11]। मगर नेहरू की सरकार इसका सख्त प्रतिरोध करती है। गांधीजी की खुलासा – ‘सरकार हुकूमत करती है जवाहर.. सेवा नहीं करती.. सरकारें सत्ता की प्रतीक होती है और सत्ता सिर्फ अपनी सेवा करती है.. इस लिए सत्ता से जितनी दूरी बनेगी उतना ही अच्छा होगा’।
नाटक में नेहरू के बरक्स गांधी का खड़ा होना आज के शासन तंत्र के खिलाफ़ गांधी दर्शन एवं प्रयोग की चेतावनी है। फिलहाल हम देखते है कि नेता गण अपनी तिजोरी भरने हेतु कई योजनाएँ कार्यान्वित करने का प्रहसन करते है। मगर विकास बनाम लूट ही जारी है। कोई भी राजनैतिक दल अवाम की खिदमत में सोचते नहीं नाटककर के लिहाज़ से विकास जड़ से यानी आम जनता की बदौलत हो – ‘जवाहर तुम पत्तों से जड़ की तरफ जाते हो और मैं जड़ से पत्तों की तरफ आने की बात करता हूँ। तुम समझते हो कि सरकारी नीतियाँ बना कर, उन्हें सरकारी तौर पर लागू करने से देश की भलाई होगी.. मैं ऐसा नहीं मानता... मैं कहता हूँ लोगों को ताकत दो, ताकि वे अपने लिए वह सब करें जो ज़रूरी समझते हैं... चिराग के नीचे अँधेरा होता है, लेकिन सूरज के नीचे अँधेरा नहीं होता’।
नेहरू मानते थे कि देश का उद्धार प्लानिंग कमीशन, फ़ाइव इयर प्लान, पॉलिसीज़ आदि को लागू करने से होगा – ‘बापू, देश को बचाने के लिए अब हमें 'पॉलिसीज' बनानी पड़ेंगी... उन्हें लागू करना पड़ेगा। 'प्लानिंग कमीशन' बनेगा। फाइव इयर प्लान बनेंगे.. तब देश में गरीबी और जहालत दूर होगी... यह दो हमारी बड़ी प्रॉब्लम्स हैं। मैं तो यही सोचता हूँ और ये करने केलिए एक 'कमीटेड' सरकार बनाना जरूरी है’। नाटक में यह कल्पना की गयी है कि अगर गांधी ज़िंदा रह जाते और अपने सिद्धांतों को अमल में लाने में अश्रांत कोशिश करते तो, तत्कालीन शासन तंत्र उन्हें निगलने की कोशिश करता। आखिरकार गांधी को नेहरू की सरकार द्वारा गिरफ्तार कर दिया जाता है। मगर गांधी निश्चिंत होकर इसी वक्त का फायदा उठाते हुए गोडसे के सेल में भर्ती पाने केलिए आमरण अनशन करता है। जब जेल में गांधीजी नवविवाहित जोड़े नवीन और सुषमा को आशीर्वाद स्वरूप गीता भेंट करते हैं तब एकाएक गोडसे गीता देख कर विचलित हो जाता है और दावा करता है कि गीता उसका जीवन दर्शन है। ऐसे में गांधी गीता का सही रास्ता उससे बतियाते हैं – ‘गीता मेरा भी दर्शन है।... कितनी अजीब बात है गोडसे।... गीता ने तुम्हें मेरी हत्या करने की प्रेरणा दी और मुझे तुम्हें क्षमा कर देने की प्रेरणा दी... ये कैसा रहस्य है?’ गौरतलब है कि जिस गीता से गोडसे ने प्रार्थना करते एक निहत्थे बूढ़े की हत्या करना सीखा उसी गीता से बापू ने खुद पर हमला करने वाले को भी क्षमा करना सीखा है। चूंकि – ‘गीता शत्रु और मित्र केलिए एक ही भाव रखने की बात करती है... यदि मैं तुम्हारा शत्रु था भी तो तुमने शत्रु भाव क्यों रखा?...गोडसे, गीता सुख-दुख, सफलता-असफलता, सोने और मिट्ठी, मित्र और शत्रु में भेद नहीं करती... समानता, बराबरी का भाव है गीता में...’[12]।
आखिरकार गांधी और गोडसे को एक साथ रिहा कर दिया गया। गांधी ने बिछड़ते वक्त उससे कहा कि उसे यकीन है कि गोडसे अपने स्वयं निर्मित घटिया रास्ते से ही आगे बढ़ेगा जो उसे सही लगता है। दरअसल धर्म मनुष्य की पाश्विक प्रकृति को बदलने का उपक्रम है। लेकिन गोडसे केलिए उसी धर्म ने मनुष्य को पशुतुल्य बनाने में काबिल बना दिया – ‘तुम हिंदुओं के शत्रु हो..सबसे बड़े शत्रु..इस देश को और हिंदुओं को तुमसे बड़ी हानि हुई है...हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान अर्थात हिंदुत्व को बचाने के लिए एक क्या मैं सैकड़ों की हत्या कर सकता हूँ’[13]।
नाटक में गाँधी विचार व उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं को भी दर्ज करने की कोशिश की गयी है। गांधी की व्याकुल आत्मा और पैनी निगाहें जेल के अंदर काम करने की संभावनाएँ तलाश कर लेती हैं। उनका यह मानना था की काम लोगों को जोड़ता है, एकता की भावना पैदा करता है जो मनुष्य जाति की सबसे बड़ी वरदान है। अपने आपको इस तरह सर्वदा काम में अर्पित हृदय के हकदार गांधी ने जेल में भी गंदगी की सफाई की।
स्वाधीनता के तत्पश्चात गांधी ने देश निर्माण के वास्ते कांग्रेस का भंग करने की आशा प्रकट की थी। लिहाज़ा कांग्रेस को विघटित कर, नेताओं को देश के दूर-दराज के हिस्सों में जाकर काम करने की सलाह वे देते है। चूंकि वे हरगिज़ मंच को राजनैतिक दल बनाकर जनता को धोखा देना नहीं चाहते थे – ‘मंच को राजनैतिक दल बना देना जनता को धोखा देना ही होगा.. जवाहर ... तुम जानते हो न्याय और अन्याय का भेद न रहा तो बुनियाद ही कच्ची रह जाएगी..’[14]। लिहाज़ा वे नेहरु आदि नेताओं को समझाने की कोशिश करते हैं कि कांग्रेस जो एक खुला मंच थी जिसमें हर विचार के लोग शामिल थे। अतः फिलहाल इसे डिसोल्व कर गाँवों में जाकर हमें देशसेवा करनी चाहिए – ‘देश सेवा... जो हमने व्रत लिया हुआ है हम सब भारत के गाँवों में चले जाएँगे और वहाँ के लोगों की सेवा करेंगे। गीता में आता है, 'हम अपने अंत: करण की शुद्धि के लिए यज्ञ-कर्म करेंगे'। लेकिन कोई उनके इस विचार से सहमत नहीं होते।
भारतीय समाज में यह विडंबना फिलहाल कुछ ज़्यादा ही विकट हो गई है कि गांधी से हर कोई श्रद्धा रखता है, मगर गांधी के मूल्यों को नज़रअंताज़ करते है। लेकिन इस गांधी को वे उस तरह नहीं मार सकते जिस तरह गोडसे ने मारने की कोशिश की। इसलिए वे गांधी का नाम तो लेते हैं, मगर मंदिर गोडसे का बनाते है। शर्मनाक है उस साम्राज्यवादी शक्ति की राजधानी लंदन में गांधी की प्रतिमा लगाई गई है जिससे गांधी ने भारत को मुक्त कराया था, जबकि भारत में कुछ लोग उनके हत्यारे का मंदिर बनाने का विचार करते हुए दिखाई पड़ते हैं।
निष्कर्षतः प्रस्तुत नाटक मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में गांधी और गांधीवाद की उपादेयता पर अनमोल पेशकश है।
[2] यशपाल - गांधीवाद की शव परीक्षा, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, भूमिका
[3] डॉ.धीरेंद्र वर्मा - गांधीवादी हिन्दी साहित्य कोश, पृ - २१
[4] यशपाल - गांधीवाद की शव परीक्षा, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, भूमिका
[5] जेसन क्विन - गांधी : मेरा जीवन ही मेरा संदेश’, हिन्दी रूपांतर:अशोक चक्रधर, कैम्पफायर प्रकाशक, नई दिल्ली, २०१४, भूमिका
[6] विश्वभारती(त्रैमासिक), गांधी स्मृति शांति विशेषांक, पृ - ६९
[7] http://hindisamay.com/asgar-vazahat/natak/godse@gandhi-dot-com.htm
[8] वहीं
[9] वहीं
[10] वहीं
[11] वहीं
[12] वहीं
[13] वहीं
[14] वहीं
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