राजेश जोशी की कविताओं का प्रतिरोधी तेवर / डॉ.निम्मी ए.ए.
राजेश जोशी की कविताओं का प्रतिरोधी तेवर
शोध सार:
राजेश जोशी की कविताएं उन तमाम सत्ता, तकसीम, साम्प्रदायिकता और ध्रुवीकरण की राजनीति का प्रतिरोध करती हैं, जो अवाम की दुर्गति, दुर्दशा और बदहालत के लिए कारण बनी हुई है। उनकी अधिकांश कविताओं में सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज हुआ है। उनकी कविताएं साम्प्रदायिकता के दुष्परिणाम को, विकास बनाम विनाश को, राजनीतिक साजिशों को, सत्ता की अराजकता को दर्ज करती हैं। मौजूदा दौर में साम्प्रदायिक ताकतों की विभाजनकारी रणनीति से अच्छी तरह से वाकिफ़ कवि की समझ है कि ऐसी ताकतें देश का सबसे बड़ा नुकसान कर रही है। आपकी कविताओं में सत्ता की मनमानी, तानाशाही और भ्रष्टाचार अधोरेखित हैं। कवि राजनीतिक उजाले की चकाचौंध से भी परिचित है और फासिस्ट किस्म के अंधेरे से भी। प्रगतिशील कवियों में समय को लेकर जो साफगोई है, राजेश जोशी की कविताएं इसकेलिए उत्तम मिसाल है। अतः अपनी अभिव्यक्ति को लेकर खतरे उठाने का जोखिम है, व्यवस्था द्वारा पहचान लिए जाने के खतरे हैं, उन सबसे रूबरू होते हुए राजनीतिक आर्थिक संकट से उभरने के जिद्दो- जहद है । राजेश जोशी, कविता में और जीवन में भी अपने वक्त के पाबंद हैं। बहरहाल वे अपने समय, प्रकृति और देश से आबद्ध एक सजग कवि हैं।
बीज शब्द: विकास बनाम विनाश, सत्ता की अराजकता, तकसीम की राजनीति, पर्यावरण संरक्षण, नागरिकता कानून की पेचीदगी, प्रतिरोधी तेवर, प्रकृति सापेक्ष ।
शोध विस्तार:
आधुनिक मानव अपनी महत्वाकांक्षाओं को बरकरार रखने में दिलचस्प हैं। इसी का नतीजा है विकास। विकास हरगिज़ गलत अवधारणा नहीं है। विकास प्रकृति से जुड़कर होना चाहिए। परंतु विकास बनाम विनाश ही फिलहाल कायम है। यही आज का ज्वलंत प्रश्न है। पर्यावरणविद् ज्ञानेन्द्र रावत के लफ़्ज़ों में ‘पर्यावरण पर आज तक जो भी प्रहार होते रहे हैं, उन सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा रही है, जो एक वर्ग विशेष के हितों का पोषण कर रही है’[1]। फिलहाल हम प्रकृति का दोहन पर्याप्त मात्रा में करते आ रहे हैं। चूंकि हम विकास की अंधाधुंध भागदौड़ में हैं। इसके दहशत भरे नतीजे से केरल हाल ही में गुज़रे हैं। हमारे पूर्वजों ने प्राकृतिक संपदा को सुरक्षित रखने की कोशिश की थी। बहरहाल हमारा पर्यावरण सुरक्षित रहा। मगर फिलहाल हम अपनी विरासत खो बैठे हैं। अतः विकास को हमें प्राकृतिक संतुलन के तहत बरकरार रखने की कोशिश करनी चाहिए। हमारे पुराणों, वेदों तथा उपनिषदों में प्रकृति माँ के महत्व पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। वेद का कथन है कि ‘माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:’ अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं। वही तुम्हारा पालन पोषण कर रही है। फिर कहा गया है कि ‘उप सर्प मातरम् भूमिः’| यानी कि हे मनुष्य! मातृभूमि की सेवा करो|
आखिरकार हम वन उपवन उजाड़कर कंक्रीट के महलों से ही जीवन आनंद लेने के पक्ष में हैं। तमाम भूमंडल प्रकृति विरोधी विकास के नाम पर ही नष्ट होने के कगार पर है। एन वक्त पर तरह-तरह के सवाल मन में उठते है कि दरअसल विकास की परिभाषा क्या है? क्या सचमुच हम ज़हर भरे माहौल में दम घुटकर मरने केलिए विकास चाहते हैं? बहरहाल विकास के बारे में सुंदरलाल बहुगुणा ने सही फरमाया है - ‘संस्कारित होना ही विकास है। भारतीय संस्कृति में ऐसे ही विकास को संस्कृति का पर्याय माना गया है। परंतु भारतीय गणतन्त्र में संस्कार नहीं अपितु भोग-लिप्सा केलिए बलात्कार की प्रवृत्ति बढ़ी है। हम संस्कृति में नहीं, विकृति में विकसित हो रहे हैं’[2]। लिहाज़ा परिस्थिति सहयोगी दृष्टिकोण ही हमें विकास के सच्चे रास्ते पर ले जाने में सहायक होगा। इन सबसे वाकिफ होने के बावजूद ‘मनुष्य सारी पृथ्वी छेंकता चला जा रहा है। पशु-पक्षियों का भाग छिनता जा रहा है। उनके सब ठिकानों पर हमारा निष्ठुर अधिकार होता चला जा रहा है’[3]।
समकालीन हिन्दी कविता विकास की तमाम साज़िशों से भली-भांति वाकिफ हैं और वह इसके बरखिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज करने में वाकई काबिल हुई हैं। विशेषकर राजेश जोशी की कविताएं प्रकृति विरोधी विकास योजनाओं के बरक्स जवाबदेह हैं। 'एक दिन बोलेंगे पेड़", 'मिट्टी का चेहरा', 'नेपथ्य में हँसी', 'दो पंक्तियों के बीच', 'ज़िद', 'उल्लंघन' आदि उनके प्रमुख काव्य संग्रह है। उनकी कविताओं में अपने समय की समझ ज़ाहिर है। ‘राजेश जोशी की कविताओं को पढ़ना एक पीढ़ी और उसके समय से दस-पंद्रह साल पीछे की कविता और उससे जुड़ी बहसों के बारे में सोचना, और इतने ही साल आगे की कविता और उसकी मुश्किलों की ओर ताकना है[4]’।
संप्रति उदारीकरण के चंगुल में पड़कर विकास बाज़ार केन्द्रित होने लगा है। लिहाज़ा देश से कृषि संस्कृति खारिज होने लगी और उपभेक्तावादी संस्कृति सर्वत्र पनपने लगी। अकाल वर्षा, कड़ी धूप, कृषि क्षेत्र पर कीटनाशकों का अधिक इस्तेमाल, ज़हरीली तरकारियाँ, जानलेवा बीमारियाँ, ई-कूड़ा-कचड़ा से होने वाले मसले आदि फिलहाल हमारे विकासशील देश की नज़रिया बन गयी है। राजेश जोशी की ‘मैं उड़ जाऊंगा’ नामक कविता में भोपाल गैस त्रासदी के दरमियान हरे सब्जियों के प्रदूषित हो जाने के प्रति विद्रोह प्रकट किया है कि वे हर पल नष्ट हो जाने की आशंका से भरी इस दुनिया से बिल्कुल ऊब चुके है। लिहाज़ा कवि प्रदूषण से दरकिनार दूसरे ग्रह में बस जाने की सोच में है।
ऊपर किसी गृह पर बैठकर
ठेंगा दिखाऊँगा मैं सारे दुष्टों को
कर डालो कर डालो जैसे करना हो नष्ट
इस दुनिया को।[5]
प्रकृति ही तमाम जीव-जंतुओं के लिए प्राणवायु देती है। हालांकि कथित विकास गुणात्मक मानव जीवन से दरकिनार है। कारखानों के मार्फत उत्सर्जित अवशिष्ट पदार्थों को नदियों में बारंबार बहाकर हम जलीय जीवों को नष्ट करते आ रहे हैं। ऐही हालात में आम आदमी को पीने केलिए भी स्वच्छ पानी मयस्सर नहीं है। ‘किस्सा उस तालाब का’ में इसी बात को ज़ाहिर किया गया है।
मैंने मिनरल वाटर की एक बोतल खरीदी और एक अखबार
और प्लेटफार्म पर लगी एक बेंच पर बैठ गया
कोशिश की, बहुत कोशिश की पर उसे जल कह सकने का
पवित्र भाव जागा ही नहीं मन में।[6]
जल, वायु, वनस्पति और सभी प्राणी आधुनिक जीवनशैली के हमले के शिकार हैं। वायु से ही आयु है। जलवायु परिवर्तन, बढ़ते तापमान, सूखा, बाढ़ और तूफान बढ़ रहे हैं। संप्रति देश भूमंडलीय ताप के खतरे में है। उनकी ‘उमस’ कविता में इसका जिक्र हुआ है कि उमस इतनी ज़्यादा थी कि सबके गले सूख रहे थे और किसी के पास नहीं था एक घूंट भी पानी।
आषाढ़ के बादल बिना बरसे ही इस बार
उत्तर भारत से फरार हो गए थे
मनसून से पहले की फुहारें भी इन इलाकों में नहीं पडी थी
और चौपट हो चुकी थी सोयाबीन की सारी फसल।[7]
कवि की राय में नवउपनिवेशवादी कुत्तों से भरा है हमारी हालतें। ‘घोंसला’ की पंक्तियाँ हैं -
हाय! कुत्तों से भरे इस धरती पर
कितना मुश्किल एक साधारण सा घोंसला बांधना!![8]
विकास और पर्यावरण संरक्षण एक दूसरे के पूरक हैं। लिहाज़ा विकास बनाम पर्यावरण का क्षरण तमाम मानव जाति के लिये वाकई आत्मघाती कदम होगा। फिलहाल किसी भी तलाब में एक बूंद पानी नहीं है। ‘किस्सा उस तलाब का’ में ऐसी एक तलाब का चित्रा खींचा गया है। यहां तालाब का इस प्रकार सूखना और एक मेले के बतौर कहना हमारे विकासवादी अंध मानसिकता का ही नतीजा है।
किस्सा उस तालाब का
तालाब के बीच एक जजीरासा था
जिस पर एक सूफी फ़क़ीर शाह अली शाह का तकिया था
साथ जहाँ हम अक्सर ही नाव से जाया करते थे
तालाब उस जजीरे तक सूख चुका था।
संप्रति पारिस्थितिक प्रदूषण समूचे विश्व में विकराल समस्या बन गई है। यातायात व परिवहन के साधनों तथा उद्योगों की चिमनियों से उत्सर्जित धुओं की वजह शुद्ध वायु का नितांत अभाव है। यहीं नहीं जैट विमानों तथा मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने मानव को लाइलाज बहरेपन भेंट किया है। वृक्ष और वनस्पतियां पृथ्वी परिवार के अंग हैं। परंतु विकास के तहत वृक्षों की अंधाधुंध कटाई होती है। लिहाज़ा वन क्षेत्र घट रहे हैं। महानगरों के अराजक विस्तार में तमाम जीव-जालों की आहुति होती है। अतः नगर अपने विस्तार में जल, जंगल और ज़मीन निगल रहे हैं। ऐसे में बसंत ऋतु इतना थका और लज्जित है कि आजकल दिखाई ही नहीं देती। इसका जिक्र उनकी ‘बसन्त १९८५’ नामक कविता में हुआ है।
कोई वृक्ष नहीं जहां
एक हरी कोंपल की तरह फूट सके वह
कोई वृक्ष नहीं जिसे फूलों से लादकर
विस्मित कर डाले वह सबको!![9]
विकास का हर सोपान बर्बरता के नए आयाम को जन्म देता है। उनकी ‘एक से मकानों का नगर’ में विकास की इसी बर्बरता की गुंजाइश है। कवि बताते है कि नगरों की विकास योजनाएँ ज़्यादातर फ्लैट तथा माल संस्कृति के तहत हो रही हैं। ऐसे में देखते-देखते सारे शहर एक से मकानों से भर जायेंगे और एक जैसी लगेगी सारी सड़कें, गालियां व चौराहे।
एक दिन एकाएक हम अपने ही घर का नंबर भूल जाएंगे
अपने ही शहर में अपना ही घर ढूंढते हुए भटकेंगे
और अपना घर नहीं ढूंढ पाएँगे।[10]
दरअसल पर्यावरण को बचाना इक्कीसवीं सदी का सबसे ज्वलंत मुद्दा है। मगर विश्व के किसी देश का ध्यान इस ओर नहीं हैं। सभी देश विकास के नाम पर प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। महज़ दिखावे के लिए देश भर में ‘सेव पर्यावरण’ के तहत कतिपय संगोष्ठियों, कार्यशालओं, बैठकों आदि का आयोजन तो होते रहते हैं। मगर इसका कोई भी गुणात्मक प्रभाव प्रकृति पर दिखाई नहीं देता। महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘प्रकृति हमारी जरुरतों को तो पूरा कर सकती है, परन्तु हमारे लालच को नहीं’। इसी बात को जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में दर्ज किया है।
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब
विलासिता के नद में।[11]
देव जाति के अदम्य भोग विलासपूर्ण करतूतों का बदला प्रकृति ने प्रलय के रूप में किया था। अतः फ़िलहाल विश्व भर में जो प्राकृतिक विनाश हो रहे है, वह दरअसल मनुष्य निर्मित विनाश ही है।
‘उसके स्वप्न में जाने का यात्रा-वृत्तांत’ में कवि ने विकास के नाम पर प्राकृतिक संपदा को हड़पनेवाली बाज़ारी मानसिकता पर व्यंग किया है। पोलीथीन की जो संस्कृति फ़िलहाल तमाम धरती को निगलने केलिए तुली हुई है, बेशक बाज़ारी मानसिकता की उपज है। ‘पोलीथीन’ कविता में ज्ञानेंद्रपति ने भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है कि जिस तरह हम बाज़ार की मुट्ठी में बंद हैं, बतौर उसके पोलीथीन की मुट्ठी में बंद है तमाम बाज़ार। कविता की पंक्तियाँ हैं -
पोलीथीन की विशाल थैली में
मैंने समुद्र को भर लिया
आप अंदाज़ा भी नहीं कर सकते
कि कैसी तकलीफ़देह बात थी यह समुद्र केलिए।[12]
नागरिकता कानून को लेकर जिस तरह का प्रदर्शन सत्ता का रहा है कवि ने उसके बरक्स तत्काल विरोध किया। नागरिकता कानून की पेचीदगियों पर राजेश जोशी की कविता 'एक भुलक्कड़ नागरिक का बयान' हमारे वक्त की निहायत प्रासंगिक कविताओं में से एक हैं।
किसी को अपनी किन्हीं हालातों में भी नागरिकता की गवाही देने की मजबूरी पर कवि मन इस तरह आशंकित है -
मैं कहाँ तलाश करूँ अपनी नागरिकता के प्रमाण
मैं इसी देस की मिट्टी में घूमा हूँ नंगे पाँव
पर कहाँ-कहाँ छपे हैं मेरे पाँव के निशान
मुझे याद नहीं।[13]
नागरिकता के बरखिलाफ़ कवि का हस्तक्षेप हैं -
तुम अगर मुझे नागरिक मानने से इनकार करते हो
तो मैं भी इंकार करता हूँ,
इनकार करता हूँ तुम्हें सरकार मानने से।
मैं नागरिक हूं यह याद है मुझे,
लेकिन तुम सरकार हो यह मुझे याद नहीं।[14]
'एक अलग पृथ्वी' में देश में हो रही तकसीम की राजनीति से आक्रोश दर्ज करते हुए एक पृथक पृथ्वी की माँग में कवि सूर्य से कहता है कि कुछ ऐसा करो कि एक और पृथ्वी बनाओ जिसे मुल्कों में तकसीम न किया जा सके।
जो हर बेवतन का वतन हो
जहां हर गणतंत्र में निष्काषित कवि के लिए
अपना एक घर हो। [15]
उनकी ‘रफ़ीक मास्टर साहब’, ‘टॉमस मोर’, ‘पागल’ आदि कविताएँ साम्प्रदायिक दीवानगी, क्रूरता और निर्दयता का चित्रण करती हैं । इस तरह जब पूरी राजनीति का धर्म, जाति, अगड़े-पिछड़े समीकरणों के आधार पर ध्रुवीकरण हो रहा हो तब कविता बेशक विपक्ष में खड़ी होती है। राजेश जोशी की राय में कविता तो हमेशा से ही एक हुक्म उदूली है। यानी असहमति, अवज्ञा, उल्लंघन, प्रतिरोध, नाफ़र्मानी या आज्ञाभंग । ‘उल्लंघन’ कविता का बयान है -
मैं एक कवि हूं
और कविता तो हमेशा से ही एक हुक्म-उदूली है
हुकूमत के हर फरमान को ठेंगा दिखाती
कविता उल्लंघन की एक सतत् प्रक्रिया है। [16]
संक्षेप में कहा जाए तो संसार ने विकास की गति के जिस रफ्तार को पकड़ा है उस रफ्तार से पीछे आना नामुमकिन है। हालांकि विकास की अवधारणा सापेक्षिक है। दरअसल मानव जाति के जीवन स्तर में गुणात्मक परिवर्तन ही सही मायने में विकास है। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। किन्तु दरकार है पर्यावरण मित्र विकास की। यदि सिवाय परिस्थिति की परवाह किये विकास किया जाये तो पर्यावरण पर इसके नकरात्मक प्रभाव ही उत्पन्न होंगे। हम अकसर प्रकृति जन्य विनाश कहकर प्रकृति को कोसते रहते हैं। दरअसल हमारी प्रकृति विरोधी मानसिकता ही विकास को विनाश में तब्दील करती हैं। बहरहाल राजेश जोशी की प्रकृति सापेक्ष आस्थावादी नज़रिया हमें हरे-भरे और स्वच्छ दुनिया प्रदान करने में काबिल होगी -
कल लिखाऊँगा मैं तुम्हें
नई दुनिया की संरचना का
नया ड्राफ्ट!![17]
[2] बहुगुणा सुदरलाल - धरती की पुकार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, १९९६, पृ - 83
[3] शुक्ल आचार्या रामचंद्र -चिंतामणि, भाग -१, २००७, पृ - 114
[4] जोशी राजेश - प्रतिनिधि कविताएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१३, पृ - 5
[5] वहीं, पृ - 39
[6] वहीं, पृ - 121
[7] वहीं, पृ - 120
[8] वहीं, पृ - 74
[9] वहीं, पृ - 68
[10] वहीं, पृ - 119
[11] प्रसाद जयशंकर - कामायनी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९८, पृ - 13
[12] जोशी राजेश - प्रतिनिधि कविताएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१३, पृ - 40
[13] जोशी राजेश - उल्लंघन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृ - 42
[14] वहीं, पृ – 42
[15] वहीं, पृ – 28
[16] वहीं, पृ – 9
[17] जोशी राजेश - प्रतिनिधि कविताएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१३, पृ - 68
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