हिन्दी उपन्यासों में तृतीय प्रकृति की अस्मिता / डॉ.निम्मी ए.ए.
हिन्दी उपन्यासों में तृतीय प्रकृति की अस्मिता
शोध सार:
हिंदी साहित्य में तृतीय प्रकृति की अस्मिता का विकास सामान्यतः कथा-साहित्य में ज़्यादातर देखा जा सकता है। मुख्यधारा समाज से खारिज कर दिए जाने की वजह गुमनाम जीवन व्यतीत करने केलिए अभिशप्त इस समुदाय की संरचना काफी जटिल है। द्विलिंगी सामाजिक व्यवस्था में इनके प्रति सामाजिक स्वीकृति का नितांत अभाव है। हिंदी साहित्य इस समुदाय के मसलों को विभिन्न साहित्यिक विधाओं, खासकर उपन्यास को केंद्र में लेकर बहस-मुबाहिसे की दिशा में प्रयासरत है। यह शोध आलेख नीना शर्मा हरेश का 'मेरे हिस्से की धूप', महेंद्र भीष्म का 'मैं पायल…' और मोनिका देवी का 'अस्तित्व की तलाश में सिमरन' पर केन्द्रित है।
बीज शब्द: अस्मिता, अस्मितामूलक विमर्श, विमर्श, लैंगिक विकलांगता, उभयलिंगी, हिजड़ा, किन्नर, तृतीय प्रकृति, जनन–ग्रंथि, प्रकृति के क्रूर मज़ाक, तीसरी दुनिया, पहचान की स्वीकृति।
शोध विस्तार:
‘आदर्श हिंदी शब्दकोश’ में ‘अस्मिता’ शब्द के लिए आत्मश्लाघा, अहंकार मोह आदि अर्थ दिए गए हैं। ‘अस्मि’ शब्द अस+मिन से बना है। 'अस्मि' अर्थात 'मैं हूँ'। अस्मि की भाववाचक संज्ञा ‘अस्मिता’ है। इस शब्द से स्वत्व का बोध होता है। राजेंद्र यादव जी के लफ़्ज़ों में ' ‘अस्मिता’ जितनी मेरी है, उतनी ही मेरे परिवेश और परंपरा की भी। उसमें वर्ग, वर्ण, क्षेत्र, धर्म लिंग, परंपराएँ सभी कुछ घुसे और घुले-मिले हुए हैं। अस्मिता अपनी निजी पहचान के साथ-साथ उस क्षेत्र और समाज के पहचान की भी है जो हमारे संदर्भ तय करते हैं। ये संदर्भ जाति, रंग, वर्ग, नस्ल, क्षेत्र, भाषा, जेंडर, पेशे इत्यादि के रूप में हमारे अंतरंग (साइकी) के हिस्से हैं।'[1] अस्मिता शब्द निजत्व का परिचय करवाने के साथ जीवन के दूसरे पहलुओं से भी हमारा साझा करवाता है, समय के अनुसार उसका रूप परिवर्तित होता रहता है। दरअसल मानव अपनी अस्मिता को प्राप्त करने एवं उसे बरकरार रखने हेतु आजीवन संघर्षरत रहता है। लिहाज़ा मशहूर आलोचक नामवर सिंह के अनुसार – 'अस्मिता दया नहीं चाहती है। अस्मिता हक चाहती है।'[2] खासकर २१ वीं सदी के इस उत्तराधुनिक दौर में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अस्मिता के लिए किसी न किसी रूप से संघर्ष करना ही पड़ रहा है। अतः फिलहाल विचारधारा और चिन्तन में आए बदलावों ने कई प्रकार की अस्मिताओं को जन्म दिया, मसलन - स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, विकलांग या दिव्यङ्ग, प्रवासी, पुरुष, मुस्लिम, बाल, वृद्ध, किसान, पारिस्थितिक, थर्ड जेंडर, क्वीर, राष्ट्रीय, सांस्कृतिक इत्यादि।
तमाम प्रपंच में केवल दो लिंगों - स्त्री और पुरुष को मान्यता प्राप्त है। अतः इन दो विपरीत लिंगों को ही सृष्टि का मूलाधार माना गया है। परंतु समाज में एक तीसरा वर्ग भी मौजूद है, जिसे सब लैंगिक विकलांगता या विकृति कहकर ठुकराते रहते हैं। दरअसल यह तीसरी दुनिया की हक़ीक़त है कि लगातार वे अपने अस्तित्व केलिए संघर्ष कर रहे हैं। इनकी उपस्थिति सबको खटकती है। ये वाकई प्रकृति के क्रूर मज़ाक का पात्र है। अतः जनन–ग्रंथि की विभिन्नता हेतु लैंगिक विकलांगता का शिकार होते हैं। जिसमें उनका या माँ-बाप का कोई दोष नहीं है। लेकिन हमारा सभ्य समाज इन्हें पशु का दर्जा भी नहीं देते। दरअसल तीसरी दुनिया की हक़ीक़त है कि लगातार वे अपनी अस्मिता केलिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसकी संघर्ष गाथा को उभारने की सराहनीय कोशिश समकालीन हिन्दी उपन्यासों में पर्याप्त मात्रा में हुई हैं। बहरहाल समाज की नज़रिया किन्नरों के प्रति हिराकत की है हालाँकि हिन्दी साहित्य में खासकर उपन्यास में इन्हें मुख्य धारा की ओर लाने की सराहनीय पहल फिलहाल जारी है।
नीना शर्मा ‘हरेश’ का ‘मेरे हिस्से की धूप’ महेंद्र भीष्म का 'मैं पायल' तथा मोनिका देवी का 'अस्तित्व की तलाश में सिमरन' सरीखे उपन्यास इस तरह के जीवन संघर्ष को हमारे समक्ष उजागर करते हैं, जिन्हें समाज एवं परिवार मनुष्य की गणना तक नहीं देते। इन उपन्यासों के तृतीय प्रकृति के पात्र एक ओर मनुष्य के अंदरूनी संसार की कशमकश और आत्मबल, दूसरी और निर्मम दुनिया में जीने - अस्तित्व की रक्षा, पहचान की स्वीकृति के लिए लगातार संघर्ष करते हैं ।
सन् २०२० में प्रकाशित नीना शर्मा ‘हरेश’ का उपन्यास ‘मेरे हिस्से की धूप’ हिजड़ों की अस्मिता को दर्ज करता है । उपन्यास के केंद्र मोनी है, जिसकी अस्मिता संघर्ष की अनान्तिम दास्तां है। मोतीलाल और पुष्पा की पहली संतान के रूप में मोनी का जन्म स्त्री योनी से हुआ था। उसकी निस्संदान मौसी शालिनी ने उसका नाम चंद्रिका रखा था । चूंकि वह चंद्रमा जैसी थी। मौसी उसे लाड़-प्यार से ‘मून’ पुकारने लगी तो पुष्पा ने मोनी रखा। इस तरह वह सबकेलिए मोनी बन गयी। नवीं साल में मोनी के शरीर में थोड़ा बदलाव देखकर मौसी, डॉ. शुभांगी से मिलती है। मोनी के हर्मोनल टेस्ट करवाती है। ‘देखिए वो भगवान की तीसरी दुनियाँ है’[3]। बच्ची को ‘किन्नर’ पाकर जब पुष्पा चीख उठती है तब शालिनी पुष्पा को दिलासा देती है और मोनी को अपनी बेटी मानकर हमेशा उसका ध्यान रखती है ।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के परिवार वालों के बतौर मोनी के घर वालों ने उसे कभी भी हिजड़ा होने के नाते दुखाया नहीं। बल्कि उसे पढ़ाया और आत्मनिर्भर होने में मदद किया। उसने स्कूल में अध्यापिका की नौकरी हासिल किया । इसके बावजूद समाज की मानसिकता और स्वयं की वृत्ति मोनी को कटघरे में खड़ा कर देती है। प्रस्तुत उपन्यास में मोनी की संवेदना को बेहतरीन ढंग से बयाँ किया गया है। हालाँकि उसके हिस्से की धूप या उसके हिस्से की खुशियाँ दिलाने की कोशिश में उसके माता-पिता को दुःख ही दुःख झेलने पड़ते हैं। छोटी बहन हर्षिता का रिश्ता बारंबार टूट जाने की वजह वह उसका आरोप मोनी पर लगाती है – ‘नहीं आएगा जब तक आप हो कभी नहीं आएगा आएगा तो बस नो नो बिकॉस ऑफ यू[4]’। मोनी के हिजड़ा होने के कारण उसके काका व्यवसाय से अलग होकर, पहले ही सपरिवार राज्य छोड़कर चला गया था । हालाँकि अब बहन के शब्द वह बर्दाश्त नहीं कर सकी। वह पीड़ा मोनी के दिल को एक क्षण कमज़ोर बनाता है और वह माँ-बाप से बिना कुछ कहे किन्नरों की मंडली में चली जाती है, ताकि उसके परिवारवाले चैन से जिये। किन्नरों के झुंड में घुसने के बाद उसका चैन हमेशा केलिए नष्ट होता है। वहाँ की गंदगी, तंबाकू, पान आदि की बदबू उसे असहनीय लगता है। और ऊपर से बबली का खुलासा – ‘जब पैसे नहीं मिलते तो इस अधूरे शरीर को भी बेचना पड़ता है मात्र पचास रुपये में’[5]। उस अंधेरी दुनिया की सच्चाई सुनकर वह बेहाल हो जाती है। बबली उसे वहाँ से भाग वापिस घर जाने की सलाह देते है, चूंकि उसे पता था कि वक्त की मार ने हिजड़ों में किसी को क्रूर बना दिया है तो किसी को पत्थर। नीना जी ने बबली के ज़रिए बहुत से सवाल दर्ज किये है जोकि प्रेत्येक हिजड़ों के ज्वलंद सवाल है – ‘इस समाज में कपूत बेटे केलिए परिवार में जगह है, नाकारा बेटी कीलिए जगह है, लेकिन हिजड़े केलिए कोई जगह नही है’[6]।
एक सच्चे मित्र के रूप में साजिद मोनी का सहारा देता हुआ मिलता है। जब-कभी मोनी बिखरती-टूटती है तब साजिद उसकी दिशा और मनोबल बढ़ाकर, उसे उसकी अस्मिता और फर्ज़ से वाकिफ़ करता है – ‘देखो मोनी इसी सत्य के साथ तुमको जीना है’[7]। हालाँकि साजिद की पत्नी सायरा और माँ सकीना को उनके यह रिश्ता पसंद न होने की वजह मोनी सदैव दूर से ही साजिद से सलाह लेती नज़र आती है। वह साजिद का घर भी तोड़ना नहीं चाहती थी । लिहाजा मोनी उसे कहती थी ‘नहीं साजिद छोड़कर नहीं जा रही- बस अपने पापा का सपना मुझे बुला रहा है। मुझे वह सपना इस हाथ में देने के लिए तुम्हारा धन्यवाद। – हाँ तुम्हारी ताकत की ज़रूरत तो मुझे होगी ही। कुछ सवालों के जवाब मुझे भी तलाशने हैं। और जब तक उन सवालों के जवाब मुझे न मिल पाए तब तक शायद मैं – यहाँ न आ सकूँ’[8]। आखिर में जब बबली भी वहाँ से भागकर मोनी से मिलती है हालाँकि तब तक वह ऐड्स से पीड़ित व बेहाल थी। बबली की मृत्यु के दरमियान मोनी उसकी ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए बेचैन हो उठती है - कौन रखेगा हमें? यहाँ अनाथ आश्रम है, वृद्धाश्रम है, लेकिन हिजड़ा आश्रम नहीं है’[9]। आखिरकार ‘वह मोनी तो बन गयी। लेकिन अब मोतीलाल बनना चाहती थी। ‘मुझे मेरे हिस्से की धूप तो मिल गयी लेकिन कितनी बबली हैं जिनके हिस्से की धूप बाकी है’[10]।
प्रस्तुत उपन्यास मोनी के हिस्से की धूप, उसके अधिकारों, सम्मानों की, उसकी पीड़ा की कहानी मात्र न बनकर, उसके जैसे तमाम वर्ग के हिस्से की धूप के लिए हमें सोचने,समझने और विचारने को मजबूर करता है; बाध्य करता है । तथा समाज में हिजड़ों को स्वाभिमान के साथ जीने की दिशा देता है। मोनी अपनी अस्मिता स्वाभिमान के साथ अपने पिता मोतीलाल का व्यवसाय पुत्र की भाँति चलाती है। साथ ही साथ मानवतावादी सोच को अपनाते हुए बबली के कथन को साकार करने को प्रयासरत दिखाई पड़ती है। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की तरह, पायल की तरह, सिमरन की तरह स्वयं के लिए ही नहीं, दूसरे के लिए जीती है।
किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन संघर्ष को केंद्र में रखकर लिखा गया जीवनीपरक उपन्यास है - 'मैं पायल'। इसके प्रणेता महेंद्र भीष्म के लफ़्ज़ों में 'मैं पायल' मेरा जीवनीपरक उपन्यास है, जो किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन-संघर्षों पर आधारित है। जीवनीपरक उपन्यास लिखने की अपेक्षा जीवनी लिखना या फिर उपन्यास लिखना सरल होता है। जीवनीपरक उपन्यास में औपन्यासिक कथा प्रवाह बनाए रखते हुए किसी लक्ष्य तक पहुँचना आवश्यक होता है'[11]। अतः एक सच्चे जीवनीपरक उपन्यास के बतौर इसमें पायल उर्फ पायल सिंह के चरित्र को पूर्णतः उजागर करने की कोशिश महेंद्र भीष्म के द्वारा हुई है, जोकि पायल की जोखिम भरी ज़िन्दगी केलिए जीवंत दस्तावेज़ है।
बहादुर सिंह के खानदान में पांचवीं संतान के रूप में (जुगनी) पायल का जन्म हुआ था। यानी कि राकेश, कमलेश, आशा और गीता के बाद एक लैंगिक विकृति से ग्रस्त उसका जन्म हिजड़े के रूप में हुआ था। उसके पिता क्षत्रिय परिवार में हिजड़े के जन्म से काफी क्रुद्ध थे, मानो यह सब पायल की वजह से हुआ है। 'ये जुगनी! हम क्षत्रिय वंश में कलंक पैदा हुई, साली हिजड़ा है…….।[12]' बहरहाल उसके पिता सर्वदा उसे लड़कों के कपड़े पहनने केलिए बाध्य करता। मगर सच्चाई तो यह थी कि जुगनी का मन हमेशा स्त्रियोजित बनी बनावट में रहा । उसकी माँ तथा बहिनें उसे बेहद चाहती थी पर पिता उसकी ज़िन्दगी में खलनायक का रूप अख्तियार करता है - 'कान खोलकर सुन ले कमलेश की अम्मा, अगली बार जब मैं आऊँ और यह साला हिजड़ा लड़की के कपड़े पहने मिला और घर के बाहर निकला, तो मैं अपने ही हाथों से इस साले का खून कर दूँगा'[13]। लेकिन एक बार जब पिता की गैर हाज़िरी में जुगनी की बहनें उसे राजकुमारी के बतौर साज- श्रृंगार कर देतीं हैं, तब पिता एकाएक आकर यह देखते है और अपने आपे से बाहर हो जाते है। वह उसके कपड़े उतार देते है तथा उसे कुत्तों के बतौर मारते है -'वहीं रखी चमड़े की चप्पल को टब में भरे पानी में डूबा-डुबाकर मेरे नग्न शरीर की चमड़ी उधेड़ने में लगे रहे जब तक कि मैं बेहोश नहीं हो गई'[14]। इस निर्मम हादसे के पश्चात उसे घर में बंद किया जाता है, मगर वह किसी-न-किसी प्रकार वहां से आत्माहुती करने केलिए निकल पड़ती है। लेकिन कुँए में कूदकर या ट्रेन के नीचे कटकर मरने का साहस वह नहीं जुड़ पाती। आखिरकार घर से विस्थापित ट्रेन में चढ़कर अपने अस्तित्व को बरकरार रखने की हविश में वह एक ऐसी ही दर्दनाक ज़िन्दगी की यात्रा शुरू करने केलिए बाध्य होती है, जो प्रत्येक हिजड़ों की ज़िंदगी की हकीकत है। उसे नहीं पता था कि अपनों से बिछुड़के वह ऐसे असभ्य समाज की चपेट में खूंखार बेड़ियों के बीचों-बीच निकल पड़ी है। उस मासूम नाबालिग की यही नियति थी, जिससे वह निहायत नावाक़िफ़ थी। प्रत्येक किन्नर बचपन से ही यौन शोषण का शिकार बनती हैं, पायल हो या सिमरन इसकेलिए अपवाद नहीं। चलती हुई ट्रेन में एक वृद्ध द्वारा, सिपाही, प्रमोद व गुंडा पप्पू सब उसके जिस्म से छेड़छाड़ करने की कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं।
उम्र बढ़ने के साथ जुगनी अपनी देह सुरक्षा हेतु लड़के के बतौर पेश आने की कोशिश करती हैं। और अपनी आजीविका चलाने हेतु कानपूर में सिनेमा टॉकीज़ के रेस्तरां में बैरे, पूनम टाँकीज़ में गेट कीपर, प्रोजेक्टर चलाने के क्रम में दिखाई पड़ती है। लेकिन वह अपने शरीर के साथ समझौता हरगिज़ नहीं कर पाती -'मेरे किन्नर शरीर में आत्मा तो पूरी तरह एक स्त्री की वास करती है, जिसे पुरुष ही पसंद आता है, स्त्री नहीं'[15]। अपनी अस्मिता को बचाने की खातिर वह स्त्रियों की पोशाक में लखनऊ चली जाती है। वहां स्टेशन के करीब एक मंदिर के परिसर में कीर्तन मंडली के सदस्यों के कहने पर वह खूब नाचती है। मगर नाच के दरमियान तो तीन हिजड़े उसे ज़बरदस्त गुरमाई के पास ले जाती हैं। वहाँ से बचने की उसने बेहद कोशिश की, आखिर में वह अपने पैरों पर खड़े होकर तमाम किन्नरों की खुशहाली केलिए अश्रांत परिश्रम करती है।
उपन्यास में पायल हिजड़ों की परंपरागत जीवन शैली तथा करतूतों के बरक्स आक्रोश करती है - 'मैं एक किन्नर हूँ, तो क्या किन्नर होना अपराध है, जो उसे उसके स्वभाव के विपरीत कार्य करने केलिए विवश किया जा रहा है। क्या एक किन्नर को बधाई टोली के अलावा अन्य कार्य-दायित्व नहीं सौंपे जा सकते? ….फिर मुझे क्यों बाध्य किया जा रहा है कि मैं इनकी तरह ताली पीटूँ, ढोलक बजाऊं नाचूँ और बधाई गाऊँ[16]'। अंततोगत्वा वह गुरमाई की टोली से भागकर किन्नर गुरु पायल सिंह बन जाती है। फिलहाल वह पायल फाउंडेशन चलाती है, जोकि तमाम हिजड़ों की मंगलमय जीवन केलिए कार्यरत है। बहरहाल उपन्यास में हिजड़ों का जीवन संघर्ष पूर्णतः दर्ज हुआ है।
हिजड़ों की दर्दभरी अनछुए पहलुओं को गहराई से उजागार करने की सराहनीय कोशिश मोनिका देवी ने की है, 'अस्तित्व की तलाश में सिमरन' के ज़रिए। उपन्यास का केंद्र पात्र शत्रोहन उर्फ सिमरन पायल की तरह घरवालों से प्रताड़ित दिखाई पड़ती है। समाज में सर्वत्र इनका शारिरिक व मानसिक शोषण, तिरस्कार व अवमूल्यन होता है। इसकी लेखिका मोनिका देवी ने उपन्यास की भूमिका में दर्ज किया है - 'इस जीवनीपरक उपन्यास को लिखने का मेरा उद्देश्य यह भी है कि लोगों को किन्नर की ज़िंदगी का सच पता चल सके। हमारा समाज यह समझता है कि इनका जीवन बहुत आरामदायक है। उनको भी इस बात का ज्ञान होगा कि ये लोग कितने आनंद से अपना जीवनयापन करते हैं। हर वक्त अपनों से दूरी का गम, त्यौहारों में अकेलापन यही इनके जीवन का आधार बन जाता है[17]'। सिमरन का जन्म बिहार के मधुबनी जिला ग्राम सुगौना में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उसके पिता एक दवाई कंपनी में मशीन ऑपरेटर के पद पर कार्यरत था। और मां घर में सिलाई का काम करती थी। सिमरन पहली संतान थी और उसके पांच बहन - भाई थे। उसके नानाजी ने उसका नाम शत्रोहन (शत्रु का विनाश करने वाला) रखा था। दो साल की उम्र में उसका पूरा परिवार महाराष्ट्र ठाणे आ गए थे। उसकी ज़िन्दगी खुशी से चूम रही थी। सिमरन अपनी कहानी याद करती है - 'जब मैं पैदा हुई थी तब साधारण बच्चे की तरह थी। न तो मुझे मेरे लिंग का पता था ना ही धर्म का। उस वक़्त मैं सिर्फ एक सामान्य बालक थी जो स्नेह व प्यार की मूर्ति थी। मेरा लालन-पालन बड़े प्यार से किया गया था'[18]।
धीरे-धीरे मां-बाप का सलूक उसे असहनीय लगा। रोज़ मारपीट, गाली, पिता की दूकान में लड़कों व मर्दों द्वारा शारिरिक उत्पीड़न। मगर मेरा क्या बीति 'मैं पुरुष लिंग मैं पैदा हुई थी'। मैं अपने को लड़की मानती थी'[19]। घर की जर्जर अर्थव्यवस्था के मारे उसकी माँ उसे देह व्यापार करने तक मजबूर करती है। आखिर एक हिजड़े को कौन काम देगा? सिमरन अपने अस्तित्व को खोता हुआ असहाय ज़िन्दगी जीने केलिए विवश होती है। घर केलिए सबकुछ करने पर भी वह कंगाल ही थी, उसके पास ढकने के कपड़े तक नहीं थे 'सारे पैसे भी-बहनों के खर्च हो जाते। कभी पाप की दवाई, कभी राशन। मेरेलिए कुछ भी नहीं बचता था। मैं दूसरों से माँगकर कपड़े पहनती थी'[20]। आहिस्ता-आहिस्ता सिमरन के शरीर में बदलाव आने लगे। पुरुष मित्र केलिए उसका मन व्याकुल रहा। वह अपनी इज़्ज़त की ज़िंदगी जीना पसंद करती थी। ऐसे में किन्नर समाज से उसका मेल-जोल होने लगा। लिहाज़ा समलैगिंक और हिजडों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने वाले ‘हमसफर’ ट्रस्ट से वह जुडने लगी। साथ ही 'उजेफ़ा' नाम की संस्था के अधीन कार्य करने का अवसर भी उसे प्राप्त हुआ। पर जब वह काम छूट गया तब उसे घर से निकाल दिया गया । अपने घर वालों से मिले दुत्कार के बदले वह हमेशा प्यार व मेहनत के पैसे सँजोकर रखती थी। अपने घर वालों से मिले दुत्कार के बदले वह हमेशा प्यार व मेहनत के पैसे सँजोकर रखती थी। अपनी छोटी बहनों के प्रति उसका मन हमेशा तरसता था।
आख़िरखार सिमरन तमाम हिजडों पर होनेवाली हैवानियत के बरक्स इन शब्दों में प्रतिरोध दर्ज करती है - 'हिजड़े से हिजड़े पैदा नहीं होता। यह सभ्य समाज की देन है। हम स्त्री और पुरुष से ही पैदा होते हैं। बस वह हमको अपना नहीं पाते त्याग देते हैं। ऐसा क्यूँ?'[21] इस क्यूँ का जवाब वह पाठकों पर छोड़ती है। बहरहाल तमाम किन्नर उस सभ्य कहने वाले समाज से यही बिनती करती हैं - 'हमें किन्नर नहीं, इंसान समझा जाए। बस इतनी-सी माँग है उनकी, वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहते हैं। वे समाज में स्वयं की हिस्सेदारी चाहते हैं। देश के विकास में अपना योगदान सुनिश्चित करना चाहते हैं। ज़रूरत है उनकी बुनियादी आवश्यकताओं को समझने की'[22]।
निष्कर्षतः अमुक रचनायें समाज में तृतीय प्रकृति के जीवन संघर्ष को बयान करने के साथ ही उनकी अस्मिता को बरकरार रखने की सरहनीय पहल करती हैं।
[2] समीक्षा (संपादक) २००६, पृ - २९२
[3] वहीं, पृ - ६७
[4] हरेश, नीना शर्मा, अपनी हिस्से की धूप, माया प्रकाशन, २०२०, पृ - १९
[5] वहीं, पृ - ३०
[6] वहीं, पृ - २९
[7] वहीं, पृ - ५३
[8] वहीं, पृ - १०४
[9] वहीं, पृ - २८
[10] वहीं, पृ - ११०
[11] भीष्म, महेंद्र, मैं पायल…, अमन प्रकाशन, कानपूर, 2016, पृ - १२
[12] वहीं, पृ - २६
[13] वहीं, पृ - ३६
[14] वहीं, पृ - ३८
[15] वहीं, पृ - ८६
[16] वहीं, पृ - ९८
[17] देवी, मोनिका - अस्तित्व की तलाश में सिमरन, माया प्रकाशन, कानपूर, २०१९, पृ - ८
[18] वहीं, पृ - १०
[19] वहीं, पृ - २९
[20] वहीं, पृ - ४०
[21] वहीं, पृ - ११२
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