कबीर की सांस्कृतिक समझ और हिन्दी साहित्य / डॉ.निम्मी ए.ए
कबीर की सांस्कृतिक समझ
और हिन्दी साहित्य
डॉ.निम्मी ए.ए
‘मेहनत और प्रेम पर आधारित जीवन से अलग होने
के अर्थ में ‘साधना’ शब्द का कबीर
केलिए कोई अर्थ नही। कोई साधना नहीं है कबीर के पास आपको सिखाने केलिए – सिवाय
प्रेम और श्रम पर आधारित जीवनयापन के। सिवाय जिज्ञासा और विवेक के। सिवाय सामाजिक
और आध्यात्मिक अनुभव की द्वन्द्वात्मक वेदना को साधने के। कबीर मनुष्य मात्र केलिए
प्रामाणिक, समग्र और सम्मानपूर्ण जीवन के खोजी हैं – पुरानी
या नई धर्मसत्ता के संस्थापक नहीं’[i]।
पाँच सौ वर्ष पहले जिन विचारों को कबीर ने अपने समाज के
समक्ष रखा था, आज के संदर्भ में उन
विचारों के पुनरचिंतन, पुनर्विचार या पुनर्मूल्यांकन की अहमियत
ज़्यादा है। चूंकि कबीर के समय से भी विकराल व बीहड़ समय से फिलहाल हम गुज़र रहे हैं।
प्रेमचंद ने अपने
निबंध संग्रह ‘कुछ विचार’ में साहित्यकर के उत्तरदायित्व के बारे में लिखा था - ‘साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान
जुटाना नहीं है, वह देश – भक्ति और राजनीति के पीछे
चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई
चलनेवाली सचाई है’[ii]। निस्संदेह यह उद्धरण
कबीर से प्रभावित होकर ही उन्होंने जोड़ा था, ऐसा मेरा खयाल है। कबीर ने तमाम
भारतीय साहित्य एवं समाज को तमस से ज्योति का रास्ता दिखाया। उन्होंने अपने समाज
एवं साहित्यकार को ही नहीं आगामी समाज एवं साहित्यकार को भी प्रभावित किया है। वे हिन्दी
के प्रथम जन कवि, समाज सुधारक
एवं विचारक थे। वे हमारे बीच विचार बनकर आये थे और व्यवहार बनकर अमर हो गए।
आचार्या हज़ारी प्रसाद
द्विवेदी के मुताबिक ‘वे सही मायने में मानववादी थे’[iii]। कबीर ने अपने जीवन में दूसरों
केलिए कष्ट को स्वीकार किया था। उनकी तमाम ज़िंदगी परदुख कातिर व्यतीत हुई –
‘सुखिया
सब संसार है खावै और सोवै। दुखिया दास कबीर है जागै अरू रोवै’[iv]॥
सोहनलाल द्विवेदी के लफ़्ज़ों को उधार
लूँ तो 'मेरी समझ में तो एक बात आती है कि बाबा कबीर दास ने
तरह-तरह से देश की सोई हुई आत्मा को जगाने की कोशिश की किन्तु हाय रे विश्वगुरु
भारत! तू खर्याटे ही लेता रहा। कबीर ने प्रेम से कहा तो भी किसी ने नहीं सुना और
नाराज़ होकर कहा, तो किसी ने ध्यान नहीं दिया। कबीर ने
उलटबासीयां कहीं तो भी लोगों ने कुछ नहीं समझा और सीधी-सच्ची खरी-खरी कही, तो भी नकार दिया’[v]।
दरअसल आज की राजनीतिक-सामाजिक हालातों
में कबीर की वाणी ज़िंदगी का फलसफा सिखाती हैं। अमूमन
समाज की असंगतियों एवं विसंगतियों के बरखिलाफ आवाज़ बुलंद करने हेतु साहित्यकार
कभी-कभार कबीर के जीवन दर्शन व वैचारिकी से हौसला हासिल करते हैं। अतएव कबीर से
ऊर्जा व प्रेरणा ग्रहण कर एकाथ उनके लिए समर्पित रचनाओं से भारतीय समाज को पुन: अभिभूत करने की पहल
साहित्यकारों द्वारा हुई है। इसकेलिए मिसाल के तौर पर कृतियों की लंबी फेहरिस्त फिलहाल
मौजूद है। मसलन ‘कहै कबीर सुनो भाई साधो’ (नरेंद्र मोहन), ‘कबिरा खड़ा
बाज़ार में’ (भीष्म साहनी), ‘उत्तर कबीर’ (केदारनाथ सिंह), ‘उत्तर कबीर’ (कुँवर नारायण), ‘तुमने कबीर को देखा है’ (रामदरश मिश्र), ‘कबीरदास तुम कहाँ हो’
(नरेंद्र मोहन), ‘कबिरा खड़ा बाज़ार में’ (ज्ञानेंद्रपति), ‘देख कबीरा हँसी’ (अभिमन्यू अनत), ‘कबीर है
कहाँ’ (सुभाष राय), ‘साखी’ (विजयदेव नारायण साही), ‘परयुन्नु कबीर’ (सच्चिदानंदन) 'क़हत कबीर सुनो भाई साधो' (डॉ. मोहनलाल गुप्ता), ‘दास कबीरा जतन से ओढ़ी’
(भगवती प्रसाद वाजपेयी ‘अनूप’), ‘लोई का ताना’ (रांगेय रगव), ‘काके लागू पाव’ (भगवती शरण मिश्र), ‘दूसरा-कबीर कहानी’ (राजेश
जोशी), कबीर की डायरी (विष्णु चंद्र शर्मा), ‘देख कबीर रोया’ (भगवती शरण
मिश्र), ‘गगन घटा घहरानी’ (सुमन कुमार) आदि।
संत
कबीर के कृति-व्यक्तित्व के तहत लिखे गए उपरोक्त रचनाओं के ज़रिए कबीर के जीवन, आदर्श और विचारों का कोलाज़ बना है। उनके जीवन चरित्र पर
रोशनी डाली गई। चूंकि वर्तमान समय में भी संत कबीर का जीवन आदर्श प्रासंगिक है।
प्रचलित सभी धर्म, जांति-पांति जो इंसानों में भेद पैदा करता है, उन सभी का तीव्र विरोध उभरकर आता है इन कृतियों में । कबीर
के जीवन आदर्श में उनका सारा जीवन सत्य की खोज तथा असत्य के खंडन में व्यतीत हुआ।
कबीर की साधना 'मानने
से नहीं'
जानने से आरम्भ होती है। कबीर सिर्फ एक व्यक्ति ही नहीं, बल्कि एक विचार के रूप में हमारे सामने उभर कर एक बार नहीं
बल्कि कई बार आते हैं। लिहाज़ा उनकी वैचारिकी का समाज में व्यावहारिक ढंग से लागू
करना बेहद ज़रूरी है। सही मायने में समाज का उद्दार तभी मुमकिन होगा।
वाकई इन रचनाकारों का मकसद
ठीक ओशो के बतौर है - 'एक-एक
शब्द को सुनने की, समझने की कोशिश करो। क्योंकि कबीर जैसे दीवाने मुश्किल से कभी होते हैं।
अंगुलियों पर गिने जा सकते है। और उनकी दीवानी ऐसी है कि तुम अपना अहोभाग्य समझना
अगर उनकी सुराही की शराब से एक बूंद भी तुम्हारे कंठ में उतर जाए। अगर उनका पागलपन
तुम्हें थोड़ा सा भी छू ले तो तुम स्वस्थ हो जाओगे। उनका पागलपन थोड़ा सा भी तुम्हें
पकड़ ले,
तुम भी कबीर जैसा नाच उठो और गा उठो, तो उससे बड़ा कोई
धन्य मार्ग नहीं है। वही परम सौभाग्य है'[vi]।
‘लोई का ताना’ रांगेय राघव कृत कबीर के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास है। जिसमें धर्म के
राजनीतिकरण के खिलाफ अभियान चलाने वाले कबीर को रूबरू ज़ाहिर किया है। कबीर के केटे
कमाल के ज़रिए उपसंहार से उपन्यास की शुरुआत होती है। इस उयपन्यास के संबंध में खुद
रांगेय राघव लिखते हैं – ‘तथ्यों के अभाव में कबीर के जीवन
का पूरा चित्र देने में कमाल ने सहायता दी है। पहले कमाल उपसंहार में अपनी
परिस्थिति बताता है। तब कबीर मर चुका है और पंथ बन गया है। 'उपसंहार से पहले' में कबीर की मृत्यु के बाद गुरु की कविताओं सुनाकर आपस में
लडनेवाले चेलों का वर्णन है। फिर 'आरंभ' तक कबीर के विशेष रूप है। ‘मरजीवा’ अध्याय में कबीर के जीवन के मोड
हैं। कमाल ही बोलता है। मैं नहीं बोलता। अपने युग के बंधनों में रहकर जो कमाल कह
सकता है वह कहता है, बाकी मैं भूमिका में कह दे रहा हूं। कबीर निस्संदेह तत्कालीन जीवन में क्रान्ति
का बीज था। दुर्भाग्य से बाद में फिर वह वर्गसंघर्ष जातिसंघर्ष में दब गया। तब
वर्गसघर्ष का मतलब वर्णसंघर्ष ही था’[vii]।
कबीर को सबने रोका था।
ब्राह्मण देवता, सुल्तान
लोदी,
मुल्ला, महन्द, मठाधीश, पेशेवर साधु और संन्यासी, नाथ जोगी आदि सभी ने उन्हें घोलकर खत्म करना चाहा। मगर कबीर
को वे मिटा न सके; न सुल्तान की तलवार उसे कट सकी, न मुल्लाओं के फतवे उसका सिर झुका सके। बदले में महंतों, मठाधीशों और पंडितों की जीभ उसके सामने लड़खड़ा गई। मुक्तखोर
साधुओं की मार्फत कबीर के बेटे कमाल का आक्रोश है - 'ज़िंदा रहते हो तो हाथ-पैर से कमाकर खाओ, उसने नाथ जोगोयों से कहा कि, स्त्री पाप नहीं है, घृणित नहीं है। उसने सूफियों के उस छद्मवेश को प्रकट कर
दिया जिसकी आड़ में इस्लाम का प्रचार किया करते थे। वह मेरा बाप कबीर था! वह मेरा
बाप कबीर था’[viii]।
उपन्यासकार ने अमुक कृति के
ज़रिए वर्ग, धर्म, जाति व संप्रदाय की बेबुनियाद दीवारों को कबीर के कर्मठ जीवन के आलोक में
तोड़ने की सराहनीय पहल की है। 'भाइयों कायर की मौत मरने से तो बहादुर की मौत मरना अच्छा
है। हमारे देश में वही अपना है जो आदमी की आज़ादी केलिए खड़ा है। यह मुसलमान ही नहीं, इंसान और इंसान के बीच दीवार खड़े करने वाले पंडित, जोगी, जती, जैन, बौद्ध, शाक्त, सब विदेशी है। वे धर्म के नाम पर ऊंच नीच बनाकर लूटते हैं। मैं वह नहीं हूँ जो इस देश के
ऊँच नीच वाले कायदों को मान कर सिर झुकादूं और अपना हिन्दू धरम कह कर इस्लाम को
विदेशी कहदूं। मेरे लिए तो यह सब गलत है। यह सब धोखा है। यह सब जड़ता और घृणा पर
पालने वाले सिद्धांत है, जो गरीबों को गरीब और लुटेरों को लुटेरा और हरामखोर रखते है[ix]'।
हमारा प्रबुद्ध समाज यह जानते है कि जिसको वे पूजते है, वह महज़ पत्थर है। बावजूद इसके
हम इतने अंधविश्वासों में जकडे हुए है कि उसी पत्थर को लेकर बारंबार झगते रहते है।
हालांकि इसे भावनात्मक समझने का और स्वीकारने का संकट ज़रूर है। वाकई कबीर
ने इन तमाम हालातों के बरखिलाफ घोर प्रतिरोध दर्ज किया है। जिस तरह व्यापारिक कंपनियां अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे
रहना चाहती हैं, धार्मिक गुट भी राजनीतिक, पर्यावर्णिक और आर्थिक माहौल में परिवर्तन पर उसी तरह की
तर्कसंगत आर्थिक प्रतिक्रिया दिखाती है। धर्म के पीछे की राजनीति को समझना आसान
नहीं है। इसमें हाथ डालने वाला अपना हाथ जला ही लेता है। आज साजिश के तहत देवता और
देवियां बनाई जा रही हैं । देखिए मौजूदा
हालत के बतौर धर्म और जाति के नाम पर लोगों को बांटने वाली अपसंस्कृति का इज़हार इस
ग्रंथ में किया गया है, जोकि
कबीर की धारणा एवं मान्यता के एकदम विरुद्ध थे। लिहाज़ा आगे कबीर कहते है - 'मैं किसी से नफरत नहीं करता। हिंदुओं ने वर्णाश्रम व्यवस्था ने इंसान को
इंसान से बाँट दिया है। उनकी अवतारों की कथाओं ने जनता को रूढ़ियों में फांस लिया
है। मूर्ति पूजा के नाम पर मंदिरों में लूट मची हुई है। जैनी और बौद्ध ईश्वर को
नहीं मानते, पर उनके आचरण किसी भी तरह हिंदुओं से कम
रूढ़िवादी नही है। जोगी संसार में रहकर भी दूसरों की कमाई पर पलते है'[x]।
ऐसा कोई भी क्षेत्र
नहीं है, जहां
कबीर की सोच व समझ न पड़ी हो। सांप्रदायिकता आज की सबसे ज्वलंत समस्या है। जिसकी
बदौलत तमाम देश रोगग्रस्त बन गया है। आज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा सांप्रदायिकता के बढ़ते क़दमों में बेड़ियाँ डालने का है।
अतः आज की ज़रूरत सांप्रदायिकता के बरखिलाफ लड़ने की है। हालांकि लड़ने
वाले कम हैं और लड़ाने वाले अधिक हैं। कबीर ने खुद जातिगत वैषम्य का विष-दंश झेल था। उन्होंने व्यक्ति को जन्म के आधार पर नहीं, कर्मों और गुणों के आधार
पर श्रेष्ठ माना। यदि हम उनकी इस मान्यता को स्वीकार करें
तो मज़हबी जुनून कहीं का खत्म होता। मज़हबी मतवालापन के खिलाफ उनकी आवाज़ बारंबार
गूँजती रहती है।
सुभाष राय ने 'कबीर है कहां' कविता में कबीर के ज़रिए तमाम जाति-व्यवस्था
पर आधारित समाज की खिल्ली उठाई है। उनके मुताबिक यज्ञ की धूम पर सवार
धर्मावलम्बियों के कैद में है प्रत्येक धर्म। वे ही दरअसल धर्म की छीछालेदारी करते
है। कबीर के अनुसार किसी को शूद्र होने की वजह नीच मानना नितांत मूर्खता है,
ठीक उतनी ही किसी को ब्राह्मण होने के सबब क्रूर मानना। झूठे
धर्मावलम्बियों ने मनुष्य को जातिगत संकुचित मानसिकता के घेरे में जकड़ा। उसे निरे
अछूत की परिकल्पना दी। केरल में अय्यंकाली ने इस धार्मिक पाखंड का घोर विरोध किया
था। बहरहाल शंकरचार्य के मत 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या'
का याद दिलाते हुए जगत के सत्य को, आदमी के
सुख-दुख को, ठुकरा देना उतना आसान नही था। एक तरफ़ वैभव,
समृद्धि और सौन्दर्य था तो दूसरी तरफ़ दर्द, तड़प
और मृत्यु से भरी दुनिया को झूठ कह देना आसान था। पर कठिन था उस पर भरोसा दिलाना। कबीर
को न ईश्वर की चिन्ता थी, न जगत के वैभव का मोह था। वे
मनुष्य को जगा रहे थे और उसे ही भगवान बता रहे थे।
आ जाओ सभी मेरे साथ
आदमी केवल आदमी होता है
जन्म से नहीं, कर्म से तय होती है ऊँचाई
तुममें प्रकट हो सकती है सारी सम्भावना।[xi]
हमारे समाज की निर्मिति में जाति की
अवधारणात्मक संस्कृति की बहुत बड़ी भूमिका रही है। सैकड़ों बरस गुज़र जाने के बावजूद
फिलहाल भी कबीर को बारंबार कलुषित समाज पर कुठराघात करना पड़ता है।
लोग आए और झूमने लगे
थिरकने लगे उनके साथ
झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया
दास कबीर जतन से ओढ़ी
जस की तस धर दीनी चदरिया। [xii]
सत्ता सापेक्ष राजनीति ही
सर्वत्र कायम है। ऐसे समाज से कबीर को घृणा है, बैर है जहाँ झूठ, फ़रेब और पाखण्ड का बोलबाला हो और गरीब रोटी केलिए
मारा-मारा तरस रहे हो। ऐसे में सुभाष राय कबीर के सच्चे मॉडल की दरकार ज़ाहिर करते
हैं जिससे देश की शापग्रस्त तकदीर बदले।
क्यों नहीं मँच पर
आ रहा कोई कबीर
आख़िर कैसे बदलेगी
देश की शापग्रस्त तक़दीर। [xiii]
लिहाज़ा
फिलहाल इस युग को कबीर की ज़रूरत है, भटके हुए लोगों को उनकी वाणी की ज़रूरत है, भूले हुओं को दिशा
की ज़रूरत है।
विजयदेव
नारायण साही के ‘साखी’ संग्रह की अंतिम कतिपय कविताएं कबीर के इकहरे पाठ के तहत
लिखी गई है। इन कविताओं के ज़रिए साही ने तत्कालीन समय में कबीर को पुन: खोजने की
पहल की है। ‘प्रार्थना: गुरु
कबीरदास के लिए’ कविता में कवि परम गुरु कबीर से अंतहीन
सहानुभूति की वाणी विनम्रता के साथ बोलना चाहता है जोकि पाखंड न लगे। वे ऐसे कलेजा
की कामना करते है जो अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख की गाँठों में मरोड़े हुए उन
निरीह लोगों का माथा सहला सकूँ और निर्भीक
होकर उनकी खिदमत में हमेशा केलिए दरपेश हो सकूँ, बिलकुल कबीर के
बतौर। आगे साही कबीर से बिनती करते है -
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक क बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ।[xiv]
पुरुषोत्तम
अग्रवाल जी, कबीर को मूलतः कवि
की तरह पढ़ने के पक्ष में है। उनके अनुसार ‘कबीर समाज पर
टिप्पणी करनेवाले कवि थे, जो रचनाकर समाज के बारे में कुछ नहीं कहते, उनकी
रचनाएँ भी उनके समाज के बारे में कुछ बताती हैं’[xv]। कबीर को लेकर
उनकी समझ है - ‘अपनी जाति से भागने की बजाय वर्ण-व्यवस्था के
मूल तर्क पर प्रहार करते है। वे जानते है कि जन्मजात पूज्यता और अपूज्यता को सिरे
से खारिज बिना न वास्तविक नैतिकता की प्रतिष्ठा संभव है, न उत्तरदायी व्यक्तित्व की। कबीर जाति पर आधारित
सम्मान-असम्मान की धारणा को समाप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे। एक तरह के जातिवाद को
हटाकर दूसरी तरह के जातिवाद को पधरा देने की नहीं’[xvi]।
मौजूदा
समय में ईश्वर विज्ञापन का ज़रिया साबित होता है। धर्म की जबरन बिक्री हो रही है। हर
कहीं धार्मिक स्पर्धा है। कबीर के मुताबिक ध्वनि विस्तारक यंत्रों के ज़रिए नमाज़
तथा पूजा–पाठ करने से मतलब है भगवान को बहरा साबित करना। कबीर सच्ची भक्ति में
भरोसा रखते थे, न कि दिखावा में। भगवतीशरण मिश्र ने ‘देख कबीरा रोया’ में कबीर को ज़रिया बनाकर
हिन्दू-मुस्लिम सहिष्णुता पर ज़ोर दिया है - 'मेरे दोस्तों, मैंने यह पाया कि आप में बहुत - से
लोग इसलिए खफा हैं कि मैं राम-नाम का दीवाना हूँ। बंदापरवार की यह ख़्वाहिश कटाई
नहीं कि उसके नामों में भेद किया जाए। राम, रहीम, किशन, केशव, अल्लाह, परवरदिगार, सब उसी के नाम हैं। राम-नाम लेना मेरी
मजबूरी है क्योंकि सद्गुरु की महिमा अनंत है और सद्गुरु से मैंने, राम-नाम की दीक्षा ली है। मैं गुरु और गोविंद में गुरु को श्रेष्ठ मानता
हूं'[xvii]।
यहाँ
उपन्यासकर हिन्दू और मुसलमानों की इबादत करने के तरीके को एक माना है। उनके
मुताबिक परमपिता परमात्मा तो एक ही है, चाहे किसी भी नाम से स्मरण किया जाय। समाज में व्याप्त वर्ण
वैषम्य पर हस्तक्षेप करने वाले कबीर से प्रेरणा हासिल कर उपन्यासकर की यह खुलासा
है - 'श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है कि चारों वर्ण
(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मेरे ही द्वारा सृष्ट किए गए है। किन्तु
गुण और कर्म के आधार पर। अर्थात जन्म के आधार पर किसी का जाति-निर्धारण शास्त्र
सम्मत नहीं है'[xviii]। काबिलेगौर है मौजूदा समय में सामाजिक गैर बराबरी की के
मूल में यह जाति-भेद ही कायम है।
कबीर की
विचारधारा धर्म को लेकर विस्तृत व तटस्थ थी। वे धर्म के सच्चे स्वरूप का साझा
करवाना चाहते थे। इसका जिक्र उपन्यास में हुआ है - 'आप सभी इस्लाम के उपासक हैं। इससे मेरा कोई एतराज़ नहीं पर
मुहम्मद साहब ने मुसलमानों केलिए नियम बनाए हैं उनसे आप भटक गए हैं। आपको मालूम है
कि मुहम्मद साहब ने एक ईश्वर को छोड़कर किसी और की उपासना करनेवाले को कुफ़्र (प्रपंची)
की संज्ञा दी है। वह मूर्ति-पूजा के सख्त विरोधी थे। पर आप तो कब्र-पूजा कर रहे
है। क्यों? क्या ये कब्र आपसे बोलती है? क्या रखा है इन पत्थरों में? खुदा? वह यहाँ आने
लगा? उसका तो खुद का कोई रूप नहीं। निर्गुण,निराकार है वह। तब इन साकार कब्रों पर सिर क्यों पटकते?'[xix]
हमारा प्रबुद्ध समाज यह जानते है कि जिसको वे
पूजते है, वह महज़ पत्थर है। बावजूद इसके
हम इतने अंधविश्वासों में जकडे हुए है कि उसी पत्थर को लेकर बारंबार झगते रहते है।
हालांकि इसे भावनात्मक समझने का और स्वीकारने का संकट ज़रूर है। वाकई कबीर
ने इन तमाम हालातों के बरखिलाफ घोर प्रतिरोध दर्ज किया है। जिस तरह व्यापारिक कंपनियां अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे
रहना चाहती हैं, धार्मिक गुट भी राजनीतिक, पर्यावर्णिक और आर्थिक माहौल में परिवर्तन पर उसी तरह की
तर्कसंगत आर्थिक प्रतिक्रिया दिखाती है। धर्म के पीछे की राजनीति को समझना आसान
नहीं है। इसमें हाथ डालने वाला अपना हाथ जला ही लेता है। आज साजिश के तहत देवता और
देवियां बनाई जा रही हैं ।
कबीर का सामाजिक पक्ष हमेशा महत्वपूर्ण रहा। डॉ. धर्मवीर ने
कबीर को 'महान आजीवक' नाम दिया था। 'उनकी महत्ता का आधार उनकी कविता है, कविता को रचने वाली सामाजिक दृष्टि है; जो कई तरह के अन्यायों के खिलाफ खड़ी है'[xx]। कबीर के
पुनर्पाठ से मतलब है - हम सच्ची धार्मिकता और दिखावे की धार्मिकता में फर्क करना
सीखें। वे सही मायने में संत थे। संत माने उनका सीधा साक्षात्कार ईश्वर से हुआ हो।
जिसकेलिए मन का अहंकार दूर करना चाहिए। इसलिए वे कहते है – ‘जब मैं था तब हरि
नहीं अब हरि है मैं नाहीं’। अहंकार
की भावना को त्यागने केलिए आत्मसाक्षात्कार ज़रूरी है।
संक्षेप
में, कबीर ने भारत के सांस्कृतिक
जन-जागरण की नींव डाली थी। कबीर कथनी की
जगह करनी को तरज़ीह देते थे। वे आडम्बर की जगह आचरण और इंसान के भीतर छिपे सत्य को
उकेरने की कोशिश करते थे। उनकी यही सोच व समझ उन्हें उस दौर से लेकर आज के दौर तक
का सही नायक बनाती हैं। फिलहाल हम देखते हैं कि धर्म राजनीति का हिस्सा हो गया है।
जातियां अस्मिता तलाश रही है। अमूमन ऐसी हालातों में एक ऐसा कबीर चाहिए जो यह कह
सके कि जो तुम जातियों की बात कर रहे हो यह गलत है। बहरहाल जब तक देश में धर्म की
सियासत होगी, जातियां रहेगी, जब तक देश में कटुता रहेगी, जब तक वैमनस्व
रहेगा, प्रतिशोध
रहेगा तब तक कबीर जीवित रहेंगे और उनकी प्रासंगिकता
लगातार बढती रहेगी।
बेशक कबीर अपने समय से आगे है और
अनंतकाल तक अमर रहेगा। और शायद इसलिए वे कहते है -
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहें आज़ाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या?[xxi]
[ii] प्रेमचंद – कुछ विचार, सरस्वती
प्रेस, बनारस, पृ –
२५
[iii] हजारी प्रसाद द्विवेदी -
कबीर, हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर
कार्यालय, मुंबई, पृ – ३४
[iv] http://kavitakosh.org/
[v] डॉ. मोहनलाल गुप्ता – क़हत कबीर
सुनो भाई साधो, शुभद्रा प्रकाशन, जोधपुर, २०१६, भूमिका
[vi] ओशो - कहै कबीर दीवाना, ओशो पुब्लिकेषन्स, भूमिका
[vii] रांगेय राघव - लोई का ताना, राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली, २००७, भूमिका
[viii] वहीं - पृ - १२-१३
[ix] वहीं - पृ - १४७
[x] वहीं - १४६
[xi] http://www.kavitakosh.org, २०१९
[xii] http://www.kavitakosh.org, २०१९
[xiii] http://www.kavitakosh.org, २०१९
[xiv] http://kavitakosh.org, २००९
[xv] पुरुषोत्तम अग्रवाल - अकथा कहानी प्रेम की:
कबीर की कविता और उनका समय, राजकमल प्रकाशन, २०१९, पृ - १८
[xvi] वहीं, पृ - ३७-३८
[xvii]
भगवातीशरण मिश्र - देख कबीरा
रोया, राजपाल एंड संन्ज़, पृ - २२६
[xviii] वहीं, पृ - २३७
[xix] वहीं, पृ - २७९
[xx] कमलेश वर्मा - जाति के
प्रश्न पर कबीर,
फारवर्ड प्रेस
बुक्स, प्र.सं २०१७, पृ - १४
[xxi] http://kavitakosh.org/
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