जातीय चेतना बनाम ‘पंचलाइट’ / डॉ.निम्मी ए.ए.
जातीय चेतना बनाम ‘पंचलाइट’
डॉ.निम्मी ए.ए
फणीश्वर नाथ रेणु जी भारतीय जन जीवन के बहुत
बड़े कथाकार हैं। काबिलेगौर है कि उन्होंने गँवई अंदाज़ में जो कुछ कहा, वह भारतवर्ष
के तमाम गाँवों की कथा बन गयी। रेणु के कथा लेखन का समय नई कहानी आंदोलन का समय
था। फ़िलहाल लंबा समय बीत जाने के बावजूद रेणु को आँचलिक कहानीकार के खेमे में
डालना नासमझी है। बल्कि कहना चाहिए कि वे नयी कहानी के उन कथाकारों में हैं जो
कहानी में अभिजनवाद से पृथक रहकर अपने समय और समाज के खुरदरे यथार्थ को चित्रित
करने में माहिर थे। लिहाज़ा अमरकान्त, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और भीष्म साहनी के साथ उन्हें भी नई कहानी के
उन कथाकारों में मान्यता देने की दरकार है। रेणुजी कहानी को फैशन के बतौर नहीं,
अपितु सच्ची मनुष्यता के चित्रांकन का कलात्मक उपकरण समझते थे। रेणु
का महत्व उनकी आंचलिकता में नहीं, आंचलिकता के अतिक्रमण में
निहित है। मशहूर कथाकार निर्मल वर्मा की यह बतकही ‘बिहार के एक छोटे भूखंड की
हथेली पर रेणु ने समूचे उत्तर भारत के तमाम किसान - मज़दूरों की नियति रेखा को
उजागर किया था’, जो रेणु की समग्र मानवीय
दृष्टि का उल्लेख करते हुए वाकई सार्थक लगता है।
रेणु जी ऐसे ही शालीन व्यक्ति थे। उनका ‘हल्कापन’
कुछ वैसा ही था जिसके बारे में चेखव ने एक बार कहा था कि ‘कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते सहते हैं - ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और
हंसमुख दिखाई देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती हैं’। पता नहीं ज़मीन की कौन-सी गहराई से उनका हल्कापन ऊपर आता था। यातना की
कितनी परतों को फोड़कर उनकी मुस्कुराहट में बिखर जाता था। रेणु के पहले कहानी
संग्रह का प्रकाशन १९५८ में ‘ठुमरी’ नाम
से हुआ था। इसमें कुल मिलाकर नौ कहानियाँ हैं। क्रमशः
‘रसप्रिय’, ‘तीर्थोदक’, ‘ठेस’, ‘नित्य लीला’, ‘पंचलाइट’,
‘सिर पंचमी का सगुण’, ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए
गुलफाम’, ‘लाल पान की बेगम’ और
‘तीन बिंदिया’। इसकी तमाम कहानियाँ ठुमरी धर्मा ही है। ठुमरी की
भूमिका में रेणु लिखते हैं - 'इस संग्रह में 'ठुमरी' नाम की कोई कहानी नहीं, सभी संयोजित कहानियां ठुमरिधर्मा हैं - अंतर्भाग एक ही है सभी कथाओं का -
अंतर्भाग यानी विभिन्न स्वरों में प्रयोग से संपादित कारू-कार्य। एक ही मुहर,
विभिन्न परिवेश में'[1]। हालाँकि रेणु की सबसे पहली कहानी ‘बट बाबा’
कोलकता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘विश्वामित्र’
में प्रकाशित हुई थी। रेणु इसे अपनी पहली कहानी मानते है, जिसका जिक्र उन्होंने ‘ईश्वर रे मेरे बेचारे’
में किया है। वे लिखते हैं ‘कई सप्ताह बाद संपादक जी का
प्रोत्साहनपूर्ण पत्र मिला साथ ही साझा की विश्वामित्र का ताज़ा अंक, जिसमें मेरी पहली कहानी ‘बट बाबा’ छपी थी’[2]।
उनकी अंतिम कहानी ‘अगिनखोर’ नयी दिल्ली से प्रकाशित ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के ५-१२
नवंबर १९७२ के अंक में निकली थी।
रेणु की कहानियों की खासियत यह है कि दरअसल वे
अपनी कहानियों में ‘अपने को’ अर्थात ‘आदमी’ को ढूँढते फिरते है। खुद फणीश्वरनाथ
रेणु के ही लफ़्ज़ों में,
‘अपनी कहानियों में मैं अपने आप को ही ढूँढता फिरता हूँ। अपने को
अर्थात आदमी को!’ आगे वे कहते है ‘मैंने
ज़मीन, भूमिहीनों और खेतीहर मज़दूरों की समस्याओं को लेकर
बातें की’[3]।
बहरहाल उन्होंने जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की
पनपती हुई बेल की ओर मात्र इशारा नहीं किया था, इसे समूल
नष्ट करने की सख़्त ज़रूरत पर भी बल दिया था। रेणु जी के इस आत्म-वक्तव्य से ज़ाहिर है
कि जीवन व समाज के प्रति उनका सरोकार प्रेमचंद के बतौर ही है। वाकई इस लिहाज़ से
रेणु जी प्रेमचंद के संपूरक कथाकार है। आलोचकों का मानना है कि शायद इसी वजह से ही
प्रेमचंद के बाद रेणु को एक बड़ा पाठक वर्ग हासिल हुआ।
रेणु जी की कहानी कला की खासियत यह है कि उनकी
कहानियाँ किसी एक निश्चित अर्थ की मोहताज नहीं होती। 'प्रेमचन्द
की कहानी कला से आगे रेणु अपने परिवेश की ध्वनियों, गधों और
स्पर्शों को भी गद्य में अंकित कर देने का दुर्लभ हुनर जानते हैं’[4]। काबिलेगौर हैं कि प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों
में पहले पहल आम जनता को जगह दिया था, उनके दुःख दर्दों से
हमें रूबरू किया था। वहीं रेणु ने आम जनता की राजनीतिक चेतना और जातिगत
अंतर्विरोधों को उभारने की सराहनीय पहल की। मसलन 'तीसरी कसम
अर्थात मारे गए गुलफाम' के लहसुनवां सरीखे गौण दिखाई दे रहे
पात्र के मार्फत बिहार की जाति संरचना और हाशिए के लोगों के जीवन की एक झलक देखी
जा सकती है’[5]।
इन्द्रिय बोध, लोक – कथा व लोक धुनें
रेणु की कहानियों के अद्वितीय उपादान हैं। अतः उनकी कमोबेश कहानियां जीवन के समस्त
कलुष में भी आशा और सुगंध की खोज करती हैं; जीवन की तमाम निराशाओं के बावजूद उनके
पत्रों का उत्साह बुझता नहीं। मसलन : 'आदिम रात्रि की महक’,
‘लाल पान की बेगम’, 'तबे एकला चलो रे',
'ठेस', ‘संवदिया’ आदि। सुरेंद्र चौधरी के अनुसार रेणु की कहानियां ‘जीवन
पार्श्व को एक साथ उजागर करती हैं’[6]। रेणु जी अपनी कहानियाँ लिखने के
बगैर बुनते हैं, बिल्कुल कबीर दास
के बतौर जोकि चादर बुनते थे और उसी तर्ज पर अपने दोहे भी बुनते थे । दरअसल
रेणु के आदर्श कबीर ही थे। वे भी कबीर के बतौर ठोंक-ठोंक कर अपनी कहानियाँ रचते थे।
उनकी रचनाओं में शब्दों के महत्व अपनी जगह सुरक्षित हैं, मगर
उनकी कहानियाँ पढ़ते समय शब्द अदृश्य होने लगते हैं और पाठक के मन में परिवेश
मूर्तमान हो उभरने लगते हैं, जिसमें राग भी है, संगीत भी है, अनुराग भी।
जहां ‘पंचलाइट’ कहानी की चर्चा है, यह
उनकी बहुचर्चित व सबसे छोटी कहानी है, जो पाठकों के बीच खूब मकबूल हुई। हिंदी आलोचना में अक्सर जातिवाद के मुद्दे को किनारा करके वर्ग के सवाल पर
टीका - टिपणी मिलती है। मगर रेणु की कमोबेश रचनाएँ उत्तर भारत की खासकर बिहार के
जाति केंद्रित गाँव की तमाम परिघटना में अंतर्धारा के रूप में मैजूद रहती है।
लिहाज़ा यह कहानी समाज की जाति व सवर्ण
केंद्रित संरचना के अंत:स्वरूप का जीवंत दस्तावेज़ है। समाज में जातिवाद की जड़ें
हज़ारों वर्षों से गहरी रही है। जातिवाद के दंश ने मानवता को जितना नुकसान पहुंचाया
है उतना शायद ही किसी और ने पहुंचाया होगा। फिलहाल लोग वर्ग चेतना पर ही बात ज़्यादातर
करते है, मगर सच बात तो यह है कि इस डिजिटल युग में भी लोगों की मानसिकता में कोई
बदलाव नहीं आया है। खैर, सुधार तो ज़रूर हो रहे है। कहानी में
सवर्ण के वर्चस्ववाद के बरख़िलाफ़ पिछड़ों की जातिवादी सचेतनता व नवजागरण की अनुगूंज
मिलती हैं। हालाँकि अम्बेडकरवाद से प्रत्यक्षतः कहानी का कोई तालूकात नहीं है।
जगजाहिर है कि पूर्णिया जिले के महतो जाति बिहार में अति पिछडा वर्ग के अंतर्गत
आती है। जिनकी समाज में बेहद शोचनीय स्थिति भी है। अधिकांश जगहों में ऐसी ही हालात
हैं आज़ादी के कई बरसों बाद भी। जैसे कि कहानी में इसका उल्लेख है – 'गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग ‘सभाचट्टी’ है'[7]। यहाँ सभाचट्टी से मतलब जाति केन्द्रित टोलियों
में विभक्त समाज से है।
‘पंचलाइट’ यानी ‘पेट्रोमैक्स’! बाज़ार की
जगर-मगर कौंध के बीच एलईडी बल्ब के प्रकाश में आँखें खोलनेवाली पीढ़ी को ‘पेट्रोमैक्स’ शब्द का ठीक-ठीक अर्थ शायद ही पता
होगा। यदि कहानीकार के ही अल्फ़ाज़ उधार लूँ, तो ‘पंचलाइट’ यानी कल कब्जे वाली एक चीज़ जो रोशनी फैलाती
है। जैसा कि शीर्षक से ही ज़ाहिर है कि इस कहानी के केंद्र में वही रोशनी और कल
कब्जे वाली चीज़ है। ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि में लिखी गई अमुक कहानी की शुरुआत
एक जातीय सभाचट्टी द्वारा रामनवमी के मेले से सार्वजनिक उपयोग के लिये पेट्रोमैक्स
खरीद कर लाने से होता है। यूं तो कहानी में ‘पेट्रोमाक्स’ का खरीदा जाना एक मामूली
घटना है, मगर यह जातीय अस्मिता का प्रतीक है। इसलिए ही जैसे कथावाचक के लफ़्ज़ों में
'पिछले पंद्रह महीने से दंड-जुर्माना के पैसे जमा करके महतो
टोली के पांचों ने पेट्रोमाक्स खरीदा है'[8]। उन लोगों ने शिद्दत के साथ पेट्रोमेक्स
खरीदा और बाकि पंचायतों की बराबरी करने में सफल हुआ। वाकई पेट्रोमेक्स जैसी रोशनी
की चाह उनके चेतनागत बदलाव केलिए द्योतक है।
प्रकाश देनेवाले इस नये उपकरण की आमद पर सभी
उत्साहित थे,
परंतु तमाम पंचायत में किसी को पंचलाइट जलाना नहीं आता था। हकीकत
में यह सिर्फ पंचलाइट के जलने या नहीं जलने का सवाल न होकर पूरी पंचायत की इज्ज़त
का सवाल है। सब इसी चिंता में था कि पंचलाइट कौन जलायेगा और कैसे पंचायत की इज्ज़त
बचेगी, तभी पता चलता है कि पंचायत का एक युवा गोधन पंचलाइट बेलने
या जलाने में माहिर है। मगर गोधन बिरादरी की ही एक लड़की मुनरी से प्रेम मुहब्बत का
इज़हार करने की वजह जाति से भ्रष्ट था । हालाँकि जाति और पंचायत की नाक ऊंची बनी
रहे इसके लिए गोधन को आग्रहपूर्वक बुलाकर पंचलाइट जलाने को कहा जाता है। कुछेक
प्रसंगों के पश्चात गोधन न सिर्फ पंचलाइट बालता
है बल्कि बिरादरी में उसकी वापसी भी हो जाती है।
दरअसल यह कहानी ज्ञान
और सत्ता के गांठजोड़ के वर्चस्व को धराशयी करती दिखाई देती है। कहानी का प्रसंग द्रष्टव्य
है, 'मेले से सभी पंच दिन-दहाड़े ही गाँव लौटे; सबसे आगे पंचायत का छड़ीदार पंचलाइट का डिब्बा माथे पर लेकर और उसके पीछे सरदार
दीवान और पंच वगैरह। गाँव के बाहर ही ब्राह्मण टोले के फुंटगी झा ने टोक दिया - कितने में लालटेन खरीद हुआ महतो?’[9]
यह बेशक एक उपहास जनक अहंकारी टिप्पणी है कि पिछड़े गाँव वासी पेट्रोमक्स के बारे
में कुछ जानता ही नहीं। जैसा कि उन लोगों की औकात पेट्रोमैक्स की नही, लालटेन तक सीमित है। कथावाचक की प्रतिक्रिया देखिए.... ‘देखते नहीं हैं,
पंचलैट है! बामनटोली के लोग ऐसे ही ताब करते हैं। अपने घर की ढिबरी
को भी बिजली-बत्ती कहेंगे और दूसरों के ‘पंचलैट’ को लालटेन!’[10] ‘पंचलैट’ माने पंचों की लाइट; अपनी बिरादरी की लाइट।
ज़ाहिर है अवर्णों की
हैसियत को बढ़ावा देने वाला यह बयान सवर्ण वादी परंपरागत रूठिग्रस्त मानसिकता पर
कुठाराघात है। यह व्यंग्य अमूमन जातिगत श्रेष्ठता को मिथ या मनगढ़ंत निर्मिति साबित
करती है। यह कहानी आज़ादी के तकरीबन एक दशक बाद लिखी गयी थी। शर्मनाक है कि स्वाधीन
भारत में फिलहाल भी जातीयता की यह भावना अपने ज़ोरों पर है, जिसे
बरसों पहले रेणु ने महसूस किया। जातिवाद एक ऐसी प्रणाली है, जो
प्राचीन काल में अपनी जड़ें पाती हैं। यह वर्षों से अंधाधुंध चली आ रही है और उच्च
जातियों के लोगों के हितों को आगे बढ़ा रही है। निम्न जाति के लोगों का शोषण किया
जा रहा है और उनकी परेशानियों को सुनने वाला कोई नहीं है।
ज़ाहिर है पंचलाइट को जलाने
और रख - रखाव के कौशल से तो गाँव वासी अनभिज्ञ थे। चूँकि 'गाँववालों
ने आज तक कोई ऐसी चीज़ नहीं खरीदी, जिसमें जलाने-बुझाने का
झंझट हो। कहावत है न, भाई रे, गाय लूँ?
तो दुहे कौन? लो मजा! अब इस कल-कब्जेवाली चीज़
को कौन बाले?'[11] दरअसल इसी द्वंद्व पर केंद्रित है कहानी। यह बात नहीं कि गाँव-भर में कोई
पंचलैट बालने वाला नहीं। हरेक पंचायत में पंचलैट है, उसके
जलानेवाले जानकार हैं। मगर ‘सवाल है कि पहली बार नेम-टेम करके, शुभ-लाभ करके, दूसरी पंचायत के आदमी की मदद से
पंचलैट जलेगा? इससे तो अच्छा है पंचलैट पड़ा रहे। जिन्दगी-भर
ताना कौन सहे! बात-बात में दूसरे टोले के लोग कूट करेंगे-तुम लोगों का पंचलैट पहली
बार दूसरे के हाथ से! न, न! पंचायत की इज़्ज़त का सवाल है। दूसरे
टोले के लोगों से मत कहिए!’[12]
ऐसा लगता है कि यह कहानी बेशक आज के ज़माने के लिए भी लिखी गई थी।
पंचलैट जला पाने में नाकामियाब होने पर ‘चारों
ओर उदासी छा गई। अँधेरा बढ़ने लगा। किसी ने अपने घर में आज ढिबरी भी नहीं जलाई थी।
आज पंचलैट के सामने ढिबरी कौन बालता है!'[13]
जब राजपूत टोली के लोगों को यह पता चलता है कि पेट्रोमैक्स जल नहीं
रहे है, अलबत्ता वे महतो के उपहास करते है। देखिए ‘एक नौजवान ने
आकर सूचना दी – ‘राजपूत टोली के लोग हँसते-हँसते पागल हो रहे
हैं। कहते हैं, कान पकड़कर पंचलैट के सामने पाँच बार उठो-बैठो,
तुरन्त जलने लगेगा’[14]। दरअसल रेणु ने उस सामंती दंड – व्यवथा का जिक्र किया है, जोकि राजपूतों की बद्धमूल मानसिकता केलिए जवाबदेह है। शम्भू गुप्त के
लफ़्ज़ों में ‘ज्ञान के साथ सत्ता के गठजोड़ का मिशेल फूको का
सिद्धांत यहां याद किया जा सकता है। हमारे यहाँ का सवर्णवाद अथच ब्राह्मण वाद
ज्ञान और सत्ता के वर्चस्ववादी गठजोड का संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा उदाहरण होगा
लेकिन इस कहानी की यही विशेषता ही यह है कि यह ज्ञान और सत्ता के इस वर्चस्व को
अपनी अंदरूनी क्षमता से तोड़ती है’[15]।
जब पंचललैट बालने का
मसला आता है तो मुनरी ने चालाकी से अपनी सहेली कनेली से कहा कि वह सरदार से बताए
कि गोधन जानता है पंचलाइट जलाना। 'लेकिन, गोधन
का हुक्का-पानी पंचायत से बंद है। मुनरी की माँ ने पंचायत से फरियाद की थी कि गोधन
रोज उसकी बेटी को देखकर सलम-सलम वाला सलीमा का गीत गाता है - हम तुमसे मोहोब्बत
करके सलम! पंचों की निगाह पर गोधन बहुत दिन से चढ़ा हुआ था। दूसरे गाँव से आकर बसा
है गोधन और अब टोले के पंचों को पान-सुपारी खाने के लिए भी कुछ नहीं दिया। परवाह
ही नहीं करता है। बस, पंचों को मौका मिला। दस रुपया जुरमाना!
न देने से हुक्का-पानी बन्द। आज तक गोधन पंचायत से बाहर है। उससे कैसे कहा जाए!
मुनरी उसका नाम कैसे ले? और उधर जाति का पानी उतर रहा है'[16]। हालाँकि सलीमा का गीत गाकर आँख का इशारा मारनेवाले गोधन से गाँव-भर के
लोग नाराज़ थे। आखिर में सरदार ने कहा, ‘सरदार ने कहा, जाति की बन्दिश क्या, जबकि जाति की इज़्जत ही पानी
में बही जा रही है! क्यों जी दीवान?’[17] बहरहाल शहर से पथारी नयी चीज़ ‘पंचलाइट’ ने जातिगत संकीर्ण मानसिकता को
दराशयी कर दिया।
'अन्त में पंचलाइट की रोशनी से
सारी टोली जगमगा उठी तो कीर्तनिया लोगों ने एक स्वर में, महावीर
स्वामी की जय-ध्वनि के साथ कीर्तन शुरू कर दिया। पंचलैट की रोशनी में सभी के मुस्कुराते
हुए चेहरे स्पष्ट हो गए। गोधन ने सबका दिल जीत लिया'[18]। कहानी के आखिर में गोधन द्वारा पेट्रोमैक्स जलाना बौद्ध दर्शन का एक
सूत्र वाक्य है की याद दिलाता है। ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात अपना प्रकाश स्वयं बनो। गौतम बुद्ध के कहने का मतलब यह था कि किसी
दूसरे से उम्मीद लगाने की बजाये अपना प्रकाश रूपी प्रेरणा खुद बनो। खुद तो
प्रकाशित हो ही, लेकिन दूसरों के लिए भी एक प्रकाश स्तंभ की
तरह जगमगाते रहो। कहानी में गोधन इस केलिए दरपेश है। ग्रामीण अंचल के यथार्थवादी
चित्र रेणु ने खींचा है। जिस प्रकार हम कहते है कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है,
अलबत्ता आवश्यकता बड़े-बड़े रुढिगत संस्कार और परंपरा को व्यर्थ साबित
कर देती है। चूंकि जाति का इज्ज़त एक अस्मितागत मामला है।
यहाँ ‘विकास का
प्रतीक पंचलाइट कमियों का त्याग करने और नये रास्ते के संधान की पहल है’[19]।
सरदार ने गोधन को बहुत प्यार से पास बुलाकर कहा, ‘तुमने जाति की इज़्जत
रखी है। तुम्हारा सात खून माफ। खूब गाओ सलीमा का गाना’[20]।
समय की ज़रूरत की बदौलत सरदार द्वारा गोधन के हूनर को आदर्श के रूप में स्वीकार
करना बेशक विकास का मार्ग प्रशस्त करना ही है।
संक्षेप में, प्रस्तुत
कहानी भारतवर्ष के तमाम गाँव के जटिल समाजशास्त्र को निहायत सरल व सहज लहजे में
साझा करती है। अतः ‘यह कहानी भारत के गाँव समाज में जातिवादी विभाजन को हल्के-फुल्के
नाटकीय शिल्प में हमारे सामने रखती है’[21]।
पंचललैट के आलोक से गाँव के तमाम पेड़-पौधों के पत्ते-पत्ते पुलकित होने का संकेत सिर्फ
'पंचलाइट' का प्रकाश नहीं है, बल्कि
यह उनकी कामयाबी का आलोक है; उनकी जातीय
अस्मिता का आलोक है; उनके मान-अभिमान का आलोक है साथ ही विकासवाद का आलोक भी है।
बहरहाल 'पंचलाइट' के आलोक में मुहब्बत
की, भरोसे की तथा
जातीय जीत की रोशनी फैलती है। प्रस्तुत कहानी की कथावस्तु संक्षिप्त, रोचक, सरल, मनोवैज्ञानिक और
यथार्थवादी है। जहां तक भाषा का सवाल है, अनामिका जी के
शब्दों को उधार लूँ तो ‘मलमल के कुर्ते पर छींट लाल लाल’[22], लाजवाब है। बेशक रेणु की कहानी कला अपने आप
में अद्वितीय है :
‘बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही’[23]।
[2] वहीं
[3] वहीं
[4] बनास
जन – सं: पल्लव, फणीश्वर नाथ रेणु शताब्दी स्मरण, जनवरी-मार्च 2021, पृ – 6
[5] वहीं, पृ - 7
[6] फणीश्वरनाथ रेणु,
सुरेंद्र चौधरी, विनिबंध, साहित्य अकादमी, पृ - 35-36
[7] रेणु रचनावली-1, सं : भारत
यायावर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
1995, पृ - 193
[8] ठुमरी, फणीश्वर
नाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन,
नई दिल्ली, भूमिका
[9] रेणु रचनावली-1, सं : भारत यायावर, राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली,
1995, पृ - 193
[10] वहीं,
पृ – 194
[11] वहीं,
पृ – 193
[12] वहीं,
पृ – 195
[13] वहीं,
पृ – 194
[14] वहीं,
पृ – 194
[15] बनास
जन, सं: पल्लव, फणीश्वर नाथ रेणु शताब्दी स्मरण, जनवरी-मार्च 2021, पृ–228
[16] रेणु
रचनावली-1, सं : भारत यायावर, राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली,
1995, पृ – 195
[17] वहीं,
पृ – 195
[18] वहीं,
पृ – 195
[19] संवेद,
सं: किशन कालजयी, फणीश्वर नाथ रेणु शताब्दी स्मरण, मार्च 2021, पृ – 339
[20] रेणु
रचनावली-1, सं : भारत यायावर, राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली,
1995, पृ – 195
[21] संवेद,
सं: किशन कालजयी, फणीश्वर नाथ रेणु शताब्दी स्मरण, मार्च 2021, पृ – 541
[22] बनास
जन, सं: पल्लव, फणीश्वर नाथ रेणु शताब्दी स्मरण, जनवरी-मार्च 2021, पृ–242
[23] बात बोलेगी / शमशेर बहादुर सिंह http://kavitakosh.org/kk
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